Saturday, April 8, 2017

प्रेत शब्द से तात्पर्य


सोमयाग में दो प्रकार की गतियां होती हैं – प्रेति और एति। 
प्रेति से तात्पर्य होता है – इस पृथिवी के सर्वश्रेष्ठ रस को लेकर ऊपर की ओर आरोहण करना और उसे सूर्य व चन्द्रमा में स्थापित करना। इसे रथन्तर कहा जाता है। 
प्रेति से उल्टा एति होता है जिसमें सूर्य व चन्द्रमा की ऊर्जा का पृथिवी में स्थापन किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में मृत्यु-पश्चात् प्रेत बनने की धारणा इसी प्रेति पर आधारित है।
ऐसा नहीं है कि जिस चेतना ने आरोहण आरम्भ किया है, वह एकदम सूर्य व चन्द्रमा तक पहुंच जाएगी। 
प्रेत संज्ञक चेतना में विभिन्न पाप या दोष विद्यमान होते हैं जिनके कारण वह ऊपर की ओर यात्रा नहीं कर सकती। 
इन दोषों का क्रमशः निवारण करना होता है। शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.१२ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि दोषों के निवारण को याज्ञिक भाषा में समिष्टयजु नाम दिया गया है। 
समिष्ट को सरल भाषा में समष्टि कहा जा सकता है। सोमयाग में अग्निचयन में समिष्टयजु का क्रम दीक्षा से आरम्भ होता है।
शतपथ ब्राह्मण की भाषा में कहा गया है कि देवों ने यज्ञ करना आरम्भ किया तो असुर दौडे आए कि हमें भी यज्ञ में भाग दो (देवों के पास सत्य है जबकि असुरों के पास अनृत)। देवों ने अपना दीक्षणीय यज्ञ वहीं समाप्त कर दिया। 
दीक्षणीय के पश्चात् प्रेतों में प्रायणीय कृत्य का आरम्भ किया गया। इस कृत्य में शंयुवाक् तक पहुंचा जा सका था कि फिर असुर अपना भाग मांगने आ गए। फिर यज्ञ को यहीं समाप्त कर दिया गया। 
फिर प्रेतों में क्रीत सोम को अतिथि रूप में प्रतिस्थापित करने का कृत्य आरम्भ किया। इस याग में इडा का उपाह्वान कर लिया गया था। इस यज्ञ को यहीं समाप्त कर दिया गया। 
फिर प्रेतों में उपसद इष्टि का आरम्भ किया गया। इसमें केवल तीन सामिधेनियों का यजन किया गया था, न तो प्रयाज न अनुयाज का । इसे भी समाप्त करना पडा। 
फिर उपवसथ में अग्नीष्टोमीय पशु का आलभन किया गया।
इस यज्ञ में समिष्टयजुओं का आह्वान नहीं किया गया था। यज्ञ को समाप्त कर देना पडा। 
फिर प्रेतों में प्रातःसवन का अनुष्ठान किया गया, फिर प्रेतों में माध्यन्दिन सवन का, फिर प्रेतों में सवनीय पशु का।
इसके पश्चात् जब प्रेतों में तृतीय सवन का समस्थापन किया गया, तब उसके द्वारा सारे सत्य को प्राप्त कर लिया गया। इससे असुर पराजित हो गए। 
इस आख्यान से संकेत मिलता है कि शव दाह कर्म अग्निहोत्र के अन्तर्गत आता है जबकि शव दाह के पश्चात् के कृत्य सोमयाग के अन्तर्गत आते हैं। 
अब यह भी समझना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि शव का दाह करने वाला अग्नि का प्रज्वलन कैसे करता है। 
संभावना यह है कि अग्निहोत्री उत्तरारणि व अधरारणि द्वारा अपने अन्दर की अग्नियों को प्रज्वलित करता है और फिर वह शव में अग्नियों का प्रज्वलन करता है।
उत्तरारणि और अधरारणि हमारे श्वास – प्रश्वास तथा देह हो सकते हैं। इन अरणियों से सबसे पहले गार्हपत्य अग्नि का प्रज्वलन होता है। 
गार्हपत्य अग्नि को जठराग्नि के रूप में समझा जा सकता है। आधुनिक आयुर्विज्ञान के अनुसार जब हमें क्षुधा का अनुभव होता है तो उसका कारण यह होता है कि आन्त्रों के बाहरी आवरण में एक अम्ल का प्रादुर्भाव हो जाता है जो क्षुधा का अनुभव कराता है।
यदि क्षुधा को शान्त न किया जाए तो यह संभव है कि यह हृदय के बाहरी आवरण को भी आत्मसात् कर ले। 
तब यह दक्षिणाग्नि का ज्वलन कहा जा सकता है। क्षुधा के विकास पर मुख पर भी तेज का आविर्भाव होता है, वैसे ही जैसे महापुरुषों के मुखाकृति पर आभामण्डल प्रदर्शित किया जाता है। इसे आहवनीय अग्नि का नाम दिया जा सकता है। 
इतना अनुभव कर लेने के पश्चात् यह सोचना होगा कि मृतक के शरीर में अग्नि का प्रवेश कैसे कराया जा सकता है।
कहा गया है कि सबसे पहले मुख पर अग्नि दे और फिर प्रदक्षिणा क्रम में सब अंगों में अग्नि दे। जो अग्नि पहले प्रदीप्त हो जाए, उसी से यह अनुमान लगाया जाता है कि मृतक किस लोक को गया है।
गरुड पुराण में केवल एक-दो अध्यायों में ही वृषोत्सर्ग माहात्म्य को समाप्त कर दिया गया है।
इससे वृषोत्सर्ग का क्या महत्त्व है, इस रहस्य का उद्घाटन नहीं होता।
Antyeshti deepika अन्त्येष्टिदीपिका पुस्तक में वृषोत्सर्ग विधि पृष्ठ १२ से ३२ तक मन्त्रों सहित दी गई है।

अन्त्येष्टिदीपिका पुस्तक से यह भी ज्ञात होता है है कि गरुड पुराण आदि में चिता जलने के समय जिस यम सूक्त का पाठ करने का विधान है, वह यम सूक्त कौन सा है। ऋग्वेद १०.८ सूक्त (प्र केतुना बृहता यात्यग्निः इति) को यम सूक्त कहा गया है।


Rigveda Mandala X. Sukta 8
पर केतुना बर्हता यात्यग्निरा रोदसी वर्षभो रोरवीति |
pra ketunā bṛhatā yātyaghnirā rodasī vṛṣabho roravīti |
1. AGNI advances with his lofty banner: the Bull is bellowing to the earth and heavens.
10.8.2
दिवश्चिदन्तानुपमानुदानळ अपामुपस्थे महिषोववर्ध ||
divaścidantānupamānudānaḷ apāmupasthe mahiṣovavardha ||
He hath attained the sky's supremest limits. the Steer hath waxen in the lap of waters.
10.8.3
मुमोद गर्भो वर्षभः ककुद्मानस्रेमा वत्सः शिमीवानरावीत |
mumoda gharbho vṛṣabhaḥ kakudmānasremā vatsaḥ śimīvānarāvīt |
2 The Bull, the youngling with the hump, hath frolicked, the strong and never-ceasing Calf hath bellowed.
10.8.4
देवतात्युद्यतानि कर्ण्वन सवेषु कषयेषुप्रथमो जिगाति ||
sa devatātyudyatāni kṛṇvan sveṣu kṣayeṣuprathamo jighāti ||
Bringing our offerings to the God's assembly, he moves as Chief in his own dwelling-places.
10.8.5
यो मूर्धानं पित्रोररब्ध नयध्वरे दधिरे सूरोर्णः |
ā yo mūrdhānaṃ pitrorarabdha nyadhvare dadhire sūroarṇaḥ |
3 Him who hath grasped his Parents' head, they stablished at sacrifice a wave of heavenly lustre.
10.8.6
अस्य पत्मन्नरुषीरश्वभुध्ना रतस्य योनौतन्वो जुषन्त ||
asya patmannaruṣīraśvabhudhnā ṛtasya yonautanvo juṣanta ||
In his swift flight the red Dawns borne by horses refresh their bodies in the home of Order.
10.8.7
उष-उषो हि वसो अग्रमेषि तवं यमयोरभवो विभावा |
uṣa-uṣo hi vaso aghrameṣi tvaṃ yamayorabhavo vibhāvā |
4 For, Vasu thou precedest every Morning, and still hast been the Twins' illuminator.
10.8.8
रताय सप्त दधिषे पदानि जनयन मित्रं तन्वे सवायै ||
ṛtāya sapta dadhiṣe padāni janayan mitraṃ tanve svāyai ||
For sacrifice, seven places thou retainest while for thine own self thou engenderest Mitra.
10.8.9
भुवश्चक्षुर्मह रतस्य गोपा भुवो वरुणो यद रतायवेषि |
bhuvaścakṣurmaha ṛtasya ghopā bhuvo varuṇo yad ṛtāyaveṣi |
5 Thou art the Eye and Guard of mighty Order, and Varuṇa when to sacrifice thou comest.
10.8.10
भुवो अपां नपाज्जातवेदो भुवो दूतो यस्यहव्यं जुजोषः ||
bhuvo apāṃ napājjātavedo bhuvo dūto yasyahavyaṃ jujoṣaḥ ||
Thou art the Waters’ Child O Jātavedas, envoy of him whose offering thou acceptest.
10.8.11
भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसेशिवाभिः |
bhuvo yajñasya rajasaśca netā yatrā niyudbhiḥ sacaseśivābhiḥ |
6 Thou art the Leader of the rite and region, to which with thine auspicious teams thou teadest,
10.8.12
दिवि मूर्धानं दधिषे सवर्षां जिह्वामग्नेचक्र्षे हव्यवाहम ||
divi mūrdhānaṃ dadhiṣe svarṣāṃ jihvāmaghnecakṛṣe havyavāham ||
Thy light-bestowing head to heaven thou liftest, making thy tongue the oblationbearer, Agni.
10.8.13
अस्य तरितः करतुना वव्रे अन्तरिछन धीतिं पितुरेवैःपरस्य |
asya tritaḥ kratunā vavre antarichan dhītiṃ piturevaiḥparasya |
7 Through his wise insight Trita in the cavern, seeking as ever the Chief Sire's intention,
10.8.14
सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि बरुवाणायुधानि वेति ||
sacasyamānaḥ pitrorupasthe jāmi bruvāṇaāyudhāni veti ||
Carefully tended in his Parents' bosom, calling the weapons kin, goes forth to combat.
10.8.15
पित्र्याण्यायुधनि विद्वनिन्द्रेषित आप्त्यो अभ्ययुध्यत |
sa pitryāṇyāyudhani vidvanindreṣita āptyo abhyayudhyat |
8 Well-skilled to use the weapons of his Father, Āptya, urged on by Indra, fought the battle.
10.8.16
तरिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान तवाष्ट्रस्य चिन्निः सस्र्जे तरितो गाः ||
triśīrṣāṇaṃ saptaraśmiṃ jaghanvān tvāṣṭrasya cinniḥ sasṛje trito ghāḥ ||
Then Trita slew the foe seven-rayed, three-headed, and freed the cattle of the Son of Tvaṣṭar.
10.8.17
भूरीदिन्द्र उदिनक्षन्तमोजो.अवाभिनत सत्पतिर्मन्यमानम |
bhūrīdindra udinakṣantamojo.avābhinat satpatirmanyamānam |
9 Lord of the brave, Indra cleft him in pieces who sought to gain much strength and deemed him mighty.
10.8.18
तवाष्ट्रस्य चिद विश्वरूपस्य गोनामाचक्रणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क ||
tvāṣṭrasya cid viśvarūpasya ghonāmācakraṇastrīṇi śīrṣā parā vark ||

He smote his three heads from his body, seizing the cattle of the oniniform Son of Tvaṣṭar.

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