जीवन का एक अबाध
प्रवाह है ।।
काया की समाप्ति
के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है ।।
आगे का क्रम भी
भली प्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है ।।
श्रद्धा सशक्त
तरंगें प्रेषित कर सकती है ।।
उसके माध्यम से
पितरों- को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा
सकती है ।।
मरणोत्तर
संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके
आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है ।।
भारतीय संस्कृति
ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन शृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है, इसलिए
संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है ।।
जब वह एक जन्म
पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है, कामना की जाती है कि सम्बन्धित जीवात्मा का
अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने ।।
इस निमित्त जो कर्मकाण्ड
किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को क्रिया- कर्म करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही
मिलता है ।।
इसलिए मरणोत्तर
संस्कार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है ।।
यों श्राद्धकर्म
का प्रारम्भ अस्थि विसर्जन के बाद से ही प्रारम्भ हो जाता है ।।
कुछ लोग नित्य प्रातः
तर्पण एवं सायंकाल मृतक द्वारा शरीर के त्याग के स्थान पर या पीपल के पेड़ के नीचे
दीपक जलाने का क्रम चलाते रहते हैं ।।
मरणोत्तर
संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार के तेरहवें दिन किया जाता है ।।
जिस दिन
अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) होती है, वह दिन भी गिन लिया जाता है ।।
कहीं- कहीं
बारहवें दिन की भी परिपाटी होती है ।।
बहुत से
क्षेत्रों में दसवें दिन शुद्धि दिवस मनाया जाता है, उस दिन मृतक के निकट
सम्बन्धी क्षौर कर्म कराते हैं, घर की व्यापक सफाई- पुताई
शुद्धि तक पूर्ण कर लेते हैं,
जहाँ तेरहवीं ही
मनायी जाती है, वहाँ यह सब कर्म श्राद्ध संस्कार के पूर्व कर लिये जाते हैं ।।
________________________
अन्त्येष्टि के
१३वें दिन मरणोत्तर संस्कार किया जाता है ।।
यह शोक- मोह की
पूर्णाहुति का विधिवत् आयोजन है ।।
मृत्यु के कारण
घर में शोक- वियोग का वातावरण रहता है, बाहर के लोग भी संवेदना- सहानुभूति प्रकट
करने आते हैं- यह क्रम तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए, ताकि
भावुकतावश शोक का वातावरण लम्बी अवधि तक न खिंचता जाए ।।
कर्तव्यों की ओर
पुनः ध्यान देना आरम्भ कर दिया जाए ।।
मृत्यु के
उपरान्त घर की सफाई करनी चाहिए ।।
दीवारों की
पुताई, जमीन की धुलाई- लिपाई, वस्त्रों की गरम जल से धुलाई,
वस्तुओं की घिसाई, रँगाई आदि का ऐसा क्रम
बनाना पड़ता है कि कोई छूत का अंश न रहे ।।
यह कार्य दस से
१३ दिन की अवधि में पूरा हो जाना चाहिए ।।
तेरहवें दिन
मरणोत्तर संस्कार की वैसी ही व्यवस्था की जाए, जैसी अन्य संस्कारों की होती है ।।
__________________________________________
__________________________________________
श्राद्धकर्म
शवदाह
के बाद मृतक की
अस्थियाँ जमा की जाती
है और उसे किसी
जलस्त्रोत में, आमतौर पर
गंगा में प्रवाहित की
जाती है।
जिसके
बाद लगभग तेरह दिनों
तक श्राद्धकर्म किया जाता है।
मृतात्मा
की शांति के लिये दान
दिये जाते हैं और
ब्राम्हण समुदाय को भोजन कराया
जाता है। बाद में
लोग पिंडदान के लिये काशी
या गया में जाकर
पिंडदान की प्रक्रिया पूरी
करते हैं।
पिण्ड:
पिण्ड
चावल और जौ के
आटे, काले तिल तथा
घी से निर्मित गोल
आकार के होते हैं
जो अन्त्येष्टि में तथा श्राद्ध
में पितरों को अर्पित किये
जाते हैं।
______________________________
मृत्यु
पश्चात् संस्कार
जब भी घर में
किसी व्यक्ति की मृत्यु होती
है तब हिंदू मान्यता
के अनुसार मुख्यतः चार प्रकार के
संस्कार कर्म कराए जाते
हैं – मृत्यु के तुरत बाद,
चिता जलाते समय, तेरहवीं के
समय व बरसी (मृत्यु
के एक वर्ष बाद)
के समय। हिंदू धर्म
में मान्यता है कि मृत्यु
के पश्चात व्यक्ति स्वर्ग चला जाता है
अथवा अपना शरीर त्याग
कर दूसरे शरीर (योनि) में प्रवेश कर
जाता है।
मरने वाले दिन
मृत व्यक्ति के शरीर को
जमीन पर लिटा दिया
जाता है व सिर
की तरफ एक दीपक
जला दिया जाता है
फिर श्मशान
में शवदाह किया जाता है
दूसरे
व तीसरे दिन श्मशान से
अस्थियां लाकर पवित्र नदियों
में विसर्जित की जाती हैं।
दसवें दिन घर की
शुद्धि की जाती है।
परिवार के पुरुष सदस्य
सिर मुंडवा लेते हैं।
फिर
दीपक बुझाकर हवन आदि कर
गरुड़ पुराण का पाठ कराया
जाता है।
इन दसों दिन घर
वाले किसी भी सांसारिक
कार्यक्रम में, मंदिर में
व खुशी के माहौल
में हिस्सा नहीं लेते व
भोजन भी सात्विक ग्रहण
करते हैं।
मान्यता
है कि मृतक की
आत्मा बारह दिनों का
सफर तय कर विभिन्न
योनियों को पार करती
हुई अपने गंतव्य (प्रभुधाम)
तक पहुंचती है।
इसीलिए
१३ वीं करने का
विधान बना है।
परंतु
कहीं-कहीं समयाभाव व
अन्य कारणों से १३ वीं
तीसरे या १२ वें
दिन भी की जाती
है जिसमें मृतक के पसंदीदा
खाद्य पदार्थ बनाकर ब्रह्म भोज आयोजित कर
ब्राह्मणों को दान दक्षिणा
देकर मृतक की आत्मा
की शांति की प्रार्थना की
जाती है व गरीबों
को मृतक के वस्त्र
आदि दान किए जाते
हैं।
हर माह पिंड दान
करते हुए मृतक को
चावल पानी का अर्पण
किया जाता है।
साल
भर बाद बरसी मनाई
जाती है, जिसमें ब्रह्म
भोज कराया जाता है व
मृतक का श्राद्ध किया
जाता है ताकि मृतक
पितृ बनकर सदैव उस
परिवार की सहायता करते
रहें। इन सभी क्रियाओं
को करवाने व करने का
मुख्य उद्देश्य मृतक की आत्मा
को शांति पहुंचाना व उसे अपने
लिए किए गए गलत
कर्मों हेतु माफ करना
है क्योंकि जब भी कोई
व्यक्ति अच्छा या बुरा कर्म
करता है उसका प्रभाव
परिवार के सभी व्यक्तियों
पर होता है। इनसे
हर परिवार को जीवन चक्र
का ज्ञान व कर्मों के
फलों का आभास कराया
जाता है। वर्षभर तक
किसी भी मांगलिक का
आयोजन, त्योहार आदि नहीं करने
चाहिए ताकि दिवंगत आत्मा
को कोई कष्ट नहीं
पहुंचे।
दाहकर्ता
के लिए पालनीय नियम:
o
प्रथम
दिन खरीदकर अथवा किसी निकट
संबंधी से भोज्य सामग्री
प्राप्त करके कुटुंब सहित
भोजन करना चाहिए।
o
ब्रह्मचर्य
के नियमों का पालन करना
चाहिए।
o
भूमि
पर शयन करना चाहिए।
किसी का स्पर्श नहीं
करना चाहिए।
o
सूर्यास्त
से पूर्व एक समय भोजन
बनाकर करना चाहिए।
o
भोजन
नमक रहित करना चाहिए।
o
भोजन
मिट्टी के पात्र अथवा
पत्तल में करना चाहिए।
o
पहले
प्रेत के निमित्त भोजन
घर से बाहर रखकर
तब स्वयं भोजन करना चाहिए।
o
किसी
को न तो प्रणाम
करें, न ही आशीर्वाद
दें।
o
देवताओं
की पूजा न करें।
मृत्यु
के उपरांत होने वाली सर्वप्रथम
क्रियाएं:
o
सर्वप्रथम
यथासंभव मृतात्मा को गोमूत्र, गोबर
तथा तीर्थ के जल से,
कुश व गंगाजल से
स्नान करा दें अथवा
गीले वस्त्र से बदन पोंछकर
शुद्ध कर दें। समयाभाव
हो तो कुश के
जल से धार दें।
o
नई
धोती या धुले हुए
शुद्ध वस्त्र पहना दें।
o
तुलसी
की जड़ की मिट्टी
और इसके काष्ठ का
चंदन घिसकर संपूर्ण शरीर में लगा
दें।
o
गोबर
से लिपी भूमि पर
जौ और काले तिल
बिखेरकर कुशों को दक्षिणाग्र बिछाकर
मरणासन्न को उत्तर या
पूर्व की ओर लिटा
दें।
o
घी
का दीपक प्रज्वलित कर
दें। ‘‘सर्पिदिपं प्रज्वालयेत’’ (गरुड़ पु. ३२ -८८
)
o
भगवान
के नाम का निरंतर
उद्घोष करें।
o
संभव
हो तो जीवात्मा की
अंत्येष्टि गंगा तट पर
ही करें।
o
मरणासन्न
व्यक्ति को आकाशतल में,
ऊपर के तल पर
अथवा खाट आदि पर
नहीं सुलाना चाहिए। अंतिम समय में पोलरहित
नीचे की भूमि पर
ही सुलाना चाहिए।
o
मृतात्मा
के हितैषियों को भूलकर भी
रोना नहीं चाहिए क्योंकि
इस अवसर पर रोना
प्राणी को घोर यंत्रणा
पहुंचाता है। रोने से
कफ और आंसू निकलते
हैं इन्हें उस मृतप्राणी को
विवश होकर पीना पड़ता
है, क्योंकि मरने के बाद
उसकी स्वतंत्रता छिन जाती है।
श्लेष्माश्रु बाधर्वेर्मुक्तं प्रेतो भुड्.क्ते यतोवशः।
अतो न रोदितत्यं हि क्रिया कार्याः स्वशक्तितः।।
(याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रा.१ , ११ , ग. पु., प्रेतखण्ड १४ /८८ )
श्लेष्माश्रु बाधर्वेर्मुक्तं प्रेतो भुड्.क्ते यतोवशः।
अतो न रोदितत्यं हि क्रिया कार्याः स्वशक्तितः।।
(याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रा.१ , ११ , ग. पु., प्रेतखण्ड १४ /८८ )
o
मृतात्मा
के मुख में गंगाजल
व तुलसीदल देना चाहिए।
o
मुख
में शालिग्राम का जल भी
डालना चाहिए।
o
मृतात्मा
के कान, नाक आदि
७ छिद्रों में सोने के
टुकड़े रखने चाहिए। इससे
मृतात्मा को अन्य भटकती
प्रेतात्माएं यातना नहीं देतीं। सोना
न हो तो घृत
की दो-दो बूंदें
डालें।
o
अंतिम
समय में दस महादान,
अष्ट महादान तथा पंचधेनु दान
करना चाहिए। ये सब उपलब्ध
न हों तो अपनी
के शक्ति अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का उन वस्तुओं
के निमित्त संकल्प कर ब्राह्मण को
दे दें।
o
पंचधेनु
मृतात्मा को अनेकानेक यातनाओं
से भयमुक्त करती हैं।
पंचधेनु
निम्न हैं:
1-ऋणधेनु:
मृतात्मा ने किसी का
उधार लिया हो और
चुकाया न हो, उससे
मुक्ति हेतु।
2-पापापनोऽधेनु: सभी पापों के प्रायश्चितार्थ ।
3-उत्क्रांति धेनु: चार महापापों के निवारणार्थ।
4-वैतरणी धेनु: वैतरणी नदी को पार करने हेतु।
5-मोक्ष धेनु: सभी दोषों के निवारणार्थ व मोक्षार्थ।
2-पापापनोऽधेनु: सभी पापों के प्रायश्चितार्थ ।
3-उत्क्रांति धेनु: चार महापापों के निवारणार्थ।
4-वैतरणी धेनु: वैतरणी नदी को पार करने हेतु।
5-मोक्ष धेनु: सभी दोषों के निवारणार्थ व मोक्षार्थ।
o
श्मशान
ले जाते समय शव
को शूद्र, सूतिका, रजस्वला के स्पर्श से
बचाना चाहिए। (धर्म सिंधु- उत्तरार्ध
)
o
यदि
भूल से स्पर्श हो
जाए तो कुश और
जल से शुद्धि करनी
चाहिए।
o
श्राद्ध
में दर्भ (कुश) का प्रयोग
करने से अधूरा श्राद्ध
भी पूर्ण माना जाता है
और जीवात्मा की सद्गति निश्चत
होती है, क्योंकि दर्भ
व तिल भगवान के
शरीर से उत्पन्न हुए
हैं। ‘‘विष्णुर्देहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्विलास्तथा।। (गरुड़ पुराण, श्राद्ध प्रकाश)
o
श्राद्ध
में गोपी चंदन व
गोरोचन की विशेष महिमा
है।
o
श्राद्ध
में मात्र श्वेत पुष्पों का ही प्रयोग
करना चाहिए, लाल पुष्पों का
नहीं।
‘‘पुष्पाणी वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च’।।
(ब्रह्माण्ड पुराण, श्राद्ध प्रकाश)
‘‘पुष्पाणी वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च’।।
(ब्रह्माण्ड पुराण, श्राद्ध प्रकाश)
o
श्राद्ध
में कृष्ण तिल का प्रयोग
करना चाहिए, क्योंकि ये भगवान नृसिंह
के पसीने से उत्पन्न हुए
हैं जिससे प्रह्लाद के पिता को
भी मुक्ति मिली थी। दर्भ
नृसिंह भगवान की रुहों से
उत्पन्न हुए थे।
o
देव
कार्य में यज्ञोपवीत सव्य
(दायीं) हो, पितृ कार्य
में अपसव्य (बायीं) हो और ऋषि-मुनियों के तर्पणादि में
गले में माला की
तरह हो।
o
श्राद्ध
में गंगाजल व तुलसीदल का
बार-बार प्रयोग करें।
o
श्राद्ध
में मुंडन करने के बाद
ही स्नान कर पिंड दान
करें।
o
जौ
के आटे, तिल, मधु
और घृत से बने
पिंड का ही दान
करना चाहिए।
o
दस
दिन के भीतर गंगा
में अस्थियां प्रवाहित करने से मृतक
को वही फल प्राप्त
होता है जो गंगा
तट पर मरने से
प्राप्त होता है।
o
जब
तक अस्थियां गंगा जी में
रहती हैं तब तक
मृतात्मा देवलोक में ही वास
करती है।
o
तुलसीकाष्ठ
से अग्निदाह करने से मृतक
की पुनरावृत्ति नहीं होती। तुलसीकाष्ठ
दग्धस्य न तस्य पुनरावृत्ति
। (स्कन्द पुराण, पुजाप्र)
o
कर्ता
को स्वयं कर्पूर अथवा घी की
बत्ती से अग्नि तैयार
करनी चाहिए, किसी अन्य से
अग्नि नहीं लेनी चाहिए।
o
दाह
के समय सर्वप्रथम सिर
की ओर अग्नि देनी
चाहिए। शिरः स्थाने प्रदापयेत्।
(वराह पुराण)
o
शवदाह
से पूर्व शव का सिरहाना
उत्तर अथवा पूर्व की
ओर करने का विधान
है।
वतो नीत्वा श्मशानेषे स्थापयेदुत्तरामुरवम्।
(गरुड़ पुराण)
वतो नीत्वा श्मशानेषे स्थापयेदुत्तरामुरवम्।
(गरुड़ पुराण)
कुंभ
आदि राशि के ५
नक्षत्रों में मरण हुआ
हो तो उसे पंचक
मरण कहते हैं।
नक्षत्रान्तरे
मृतस्य पंचके दाहप्राप्तो।
पुत्तलविधिः।।
यदि
मृत्यु पंचक के पूर्व
हुइ हो और दाह
पंचक में होना हो,
तो पुतलों का विधान करें
– ऐसा करने से शांति
की आवश्यकता नहीं रहती। इसके
विपरीत कहीं मृत्यु पंचक
में हुई हो और
दाह पंचक के बाद
हुआ हो तो शांति
कर्म करें। यदि मृत्यु भी
पंचक में हुई हो
और दाह भी पंचक
में हो तो पुतल
दाह तथा शांति दोनों
कर्म करें।
o
दाहकर्ता
तथा श्राद्ध कर्ता को भूमि शयन
और ब्रह्मचर्य का पालन करना
चाहिए। भोजन नमक रहित
और प्रात :सूर्योदय से पूर्व (एक
समय) करना चाहिए।
o
प्रेत
के कल्याण के लिए तिल
के तेल का अखंड
दीपक १० दिन तक
दक्षिणाभिमुख जलाना चाहिए।
o
मृत्यु
के दिन से १०
दिन तक किसी योग्य
ब्राह्मण से गरुड़ पुराण
सुनना चाहिए।
o
ब्राह्मण
भोजन का विशेष महत्व
है-
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकक्षः।
कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः।।
अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता द्रव्य को और पितर कव्य कव्य को खाते हैं। (मनु स्मृति)
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकक्षः।
कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः।।
अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता द्रव्य को और पितर कव्य कव्य को खाते हैं। (मनु स्मृति)
o
श्राद्ध
कर्म में साधन संपन्न
व्यक्ति को विŸाशाठ्य
(कंजूसी) नहीं करनी चाहिए।
‘‘वित्तशाठ्यं न समाचरेत्’’।।
‘‘वित्तशाठ्यं न समाचरेत्’’।।
o
पिता
का श्राद्ध करने का अधिकार
मुख्य रूप से पुत्र
को ही है। यदि
पुत्र न हो तो
शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के
लिए विभिन्न विधान दिए गए है
| स्मृति संग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के
अनुसार श्राद्ध का अधिकार, पुत्र,
पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), पत्नी,
भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, सपिंड
अथवा ओदक को क्रमिक
रूप से है।
o
परिवार
अथवा कुटुंब में कोई न
शेष बचा हो तो
मृतक के साथी अथवा
उस देश के राजा
को भी मृतक के
धन से श्राद्ध करने
का अधिकार है। (मार्कण्डेय पुराण)
श्राद्ध में लोहे का
पात्र देखकर पितृगण तुरंत लौट जाते हैं
अतः लोहे का उपयोग
वर्जित है।
o
श्राद्ध
में ७ बातें वर्जित
हैं – तैलमर्दन, उपवास, स्त्री प्रसंग, औषध प्रयोग, परान्न
भोजन।
o
श्राद्धकर्ता
तीन बातें जरूरी हैं – पवित्रता, अक्रोध और अचापल्य (जल्दबाजी
न करना)।
o
सामान्यतः
श्राद्ध घर में, गौशाला
में, देवालय में अथवा गंगा,
यमुना, नर्मदा या किसी अन्य
पवित्र नदी के तट
पर करने का सर्वाधिक
महत्व है।
o
मृतात्मा
की सद्गति के लिए पिंड
के आठ अंग इस
प्रकार है- अन्न, तिल,
जल, दुग्ध, घी, मधु, धूप,
दीप।
o
मरणाशौच
के संबंध में शास्त्रों में
उल्लेख है कि ब्राह्मण
को दस दिन का,
क्षत्रिय को बारह दिन
का, वैश्य को पंद्रह दिन
का और शूद्र को
एक महीने का अशौच लगता
है। परंतु वहीं यह भी
कहा गया है कि
चारांे वर्णों की शुद्धि १०
दिन में हो जाती
है। इसके अनंतर अस्पृश्यता
का दोष नहीं रहता।
अनादि प्रयुक्त
पूर्ण
शुद्धि
१२
वें
दिन
अपिंडीकरण
के
बाद
ही
होती
है।
o
देवार्चना
आदि इसके अनंतर ही
होते हैं।
o
प्रथम
पिंडदान जिन द्रव्यों से
किया हो उन्हीं द्रव्यों
के अन्य पिंडदान से
श्राद्ध पूर्ण करें।
o
अर्थी
बांस की बनानी चाहिए
और उसे मूंज की
डोरी से बंधा होना
चाहिए। अर्थी पर बिछाने के
लिए कुशासन का प्रयोग करें।
o
शव
को ढकने के लिए
रामनामी चादर अथवा सफेद
चादर ही लें।
o
शव
को बांधने के लिए मूंज
की रस्सी और कच्चा सूत
ही प्रयोग में लें।
o
सौभाग्यवती
के लिए मौली का
प्रयोग करें और ढकने
के लिए सिंदूरी चूनर
मेंहदी, चूड़ियां आदि लें।
o
श्राद्ध
की सभी क्रियाएं गोत्र
तथा नाम के उच्चारण
व जनेऊ के क्रम
से ही होनी चाहिए।
o
एकादशाह
से ही समन्त्रोक्त कर्म
करने का विधान है।
o
दान
लेने व देने के
बाद ‘स्वस्ति’ बोलें, अन्यथा लेना देना सब
निष्फल हो जाता है।
अदानञ्च निष्फलं च यथा बिना।। (श्रीमद्वेवी भाग. ९ /२ /१००
अदानञ्च निष्फलं च यथा बिना।। (श्रीमद्वेवी भाग. ९ /२ /१००
o
पिंडदानों
से पूर्व दर्भ का चट
बनाकर उन्हीं नामों से आवाहन कर
पूजन किया जाता है।
o
मृतात्मा
की समस्त इच्छाओं की पूर्ति के
निमित्त वृषोत्सर्ग अवश्य करें लेकिन यदि
पति तथा पुत्र वाली
सौभाग्यवती स्त्री पति से पूर्व
मृत्यु को प्राप्त हो
जाए तो उसके निमित्त
वृषोत्सर्ग न करें, बल्कि
दूध देने वाली गाय
का दान करना चाहिए।
पति पुत्रवती नारी मर्तुग्रे मृता यदि। वृषोत्सर्गं न कुर्वंति गां तु दद्यात् पयस्विनीम्
पति पुत्रवती नारी मर्तुग्रे मृता यदि। वृषोत्सर्गं न कुर्वंति गां तु दद्यात् पयस्विनीम्
o
श्राद्ध
में नीवी बंधन विशेष
रूप से करें, इससे
श्राद्ध की अन्य प्रेतों
(प्रेत = मृतात्मा, पुराणों के अनुसार वह
सूक्ष्म शरीर जो आत्मा
भौतिक शरीर छोड़ने पर
धारण करती है) से
रक्षा होती है।
प्रेतकर्म= हिंदुओं
में
शवदाह
आदि
लेकर
सपिंडीकरण
तक
के
वे
कृत्य
जो
मृतक
को
प्रेत
शरीर
से
मुक्त
कराने
के
उद्देश्य
से
किया
जाते
हों।
प्रेत-कार्य।
o
श्राद्ध
में दर्भ की विटी
धारण करना आवश्यक है।
o
पितरों
को अर्पित किए जाने वाले
गंध, धूप तथा पवित्री,
तिल आदि पदार्थ अपसव्य
तथा अप्रदक्षिण (वामावर्त) क्रम से देने
चाहिए। (ग. पु. ९९
/१२ -१३)
मलिन षोडशी:
मृत्यु
स्थान से लेकर अस्थि
संचयन तक छह पिंड
तथा दशगात्र के १० पिंडों
को मिलाकर ‘मलिन षाडशी’ कहलाता
है। तिल और घी
को जौ के आटे
में मिलाकर छः पिंड बनाएं।
समस्त पिंड दक्षिणाभिमुख कर
रखें।
o
प्रथम
पिंड: मृतस्थान में शव के
नाम से पिंडदान से
युम्याधिष्ठित देवता संतुष्ट होते हैं। मृतस्थाने
शवो नाम तेन नाम्ना
प्रदीयते।
o
द्वितीय
पिंड: द्वारदेश में पिंडदान से
गृह वास्त्वाधिष्ठित देवता प्रसन्न होते हैं। द्वारदेशे
भवेत् पन्थस्तेन नाम्ना प्रदीयते।
o
तृतीय
पिंड: चैराहे पर पिंडदान से
मृतक के शरीर पर
कोई उपद्रव नहीं होता।
‘चत्वारे खेचरो नाम तमृदिृश्य प्रदीयते’।
‘चत्वारे खेचरो नाम तमृदिृश्य प्रदीयते’।
o
चतुर्थ
पिंड: विश्राम स्थान निमित्त श्मशान से पूर्व रखें।
‘‘विश्रामे भूतसंज्ञोइयं।।
o
पंचम
पिंड: चिता भूमि के
संस्कार निमित्त दें। काष्ट चयन
रूपी इस पिंडदान से
राक्षस, पिशाच आदि मृतक के
शरीर को अपवित्र नहीं
करते। तस्य होतव्य देहस्य
नैवायोग्यत्वकारक:।।
o
षष्ठ
पिंड: अस्थिसंचय के निमित्त पिंडदान
से दाहजन्य पीड़ा शांत हो जाती
है। ‘‘चिंतायां साधकं नाम वदन्त्येके खगेश्वरः।।
o
फिर
‘‘क्रव्याद अग्नये नमः’’ बोलकर अग्नि की पूजा करें।
फिर चिता की एक
अथवा तीन परिक्रमा कर
सिर की ओर आग
प्रज्वलित करें। जब शव का
आधा भाग जल जाए,
तब कपाल क्रिया करें।
o
शव
के आधे या पूरे
जल जाने पर उसके
मस्तक का भेदन करें
जिसे कपाल क्रिया कहते
हैं। गृहस्थी की बांस से
और संन्यासियों / यतियों की श्रीफल (नारियल)
से करें।
o
दाहकर्ता
शव की ७ प्रदक्षिणा
कर ७ समिधाएं एक-एक कर ‘क्रव्यादाय
नमस्तुभ्यं’ कहकर चिता में
डालें।
o
इसके
पश्चात् शवदाह संस्कार में आए लोग
घर जाएं। ध्यान रहे, घर वापस
जाते समय पीछे मुड़कर
नहीं देखना है।
घर पहुंचने पर नीम की
पत्तियां चबाकर और बाहर रखे
पत्थर पर पहला पैर
रखकर ही घर में
प्रवेश करें।
o
प्रेत
के कल्याण के लिए दस
दिन तक दक्षिणाभिमुख तिल
के तेल का अखंड
दीपक घर में जलाना
चाहिए। ‘‘कुर्यात प्रदीपं तैलेन’’ (देवयाज्ञिक का)
o
षड्पिंडदान
की सभी उत्तरक्रियाएं अपसव्य
और दक्षिणाभिमुख होकर ही करनी
चाहिए। लोकव्यवहार के अनुसार कहीं-कहीं मटकी में
जल भरकर अग्निदाह का
भी विधान है।
o
अग्निशांत
होने पर स्नान कर
गाय का दूध डालकर
हड्डियों को अभिसिंचित कर
दें। मौन होकर पलाश
की दो लकड़ियों से
कोयला आदि हटाकर पहले
सिर की हड्डियों को,
अंत में पैर की
हड्डियों को चुन कर
संग्रहित कर पंचगव्य से
सींचकर स्वर्ण, मधु और घी
डाल दें। फिर सुंगधित
जल से सिंचित कर
मटकी में बांधकर १०
दिन के भीतर किसी
तीर्थ में प्रवाहित करें।
दशाह कृत्य:
गरुड़
पुराण के अनुसार मृत्योपरांत
यम मार्ग में यात्रा के
लिए अतिवाहिक शरीर की प्राप्ति
होती है। इस अतिवाहिक
शरीर के १० अंगों
का निर्माण दशगात्र के १० पिंडों
से होता है।
जब तक दशगात्र के
१० पिंडदान नहीं होते, तब
तक बिना शरीर प्राप्त
किए वह आत्मा वायुरूप
में स्थित रहती है। इसलिए
दशगात्र के १० पिंडदान
अवश्य करने चाहिए। इन्हीं
पिंडों से अलग अलग
अंग बनते हैं। वैसे
तो दस दिनों तक
प्रतिदिन एक एक पिंड
रखने का विधान है,
लेकिन समयाभाव की स्थिति में
१० वें दिन ही
१० पिंडदान करने की शास्त्राज्ञा
है।
शालिग्राम,
दीप, सूर्य और तीर्थ को
नमस्कारपूर्वक संकल्पसहित पिंडदान करें।
पिंड
पिंड से बनने संख्या
वाले अवयव
प्रथम शीरादिडवयव निमित्त
द्वितीय कर्ण, नेत्र, मुख, नासिका
तृतीय गीवा, स्कंध, भुजा, वक्ष
चतुर्थ नाभि, लिंग, योनि, गुदा
पंचम जानु, जंघा, पैर
षष्ठ सर्व मर्म स्थान, पाद, उंगली
सप्तम सर्व नाड़ियां
अष्टम दंत, रोम
नवम वीर्य, रज
दशम सम्पूर्णाऽवयव, क्षुधा, तृष्णा
प्रथम शीरादिडवयव निमित्त
द्वितीय कर्ण, नेत्र, मुख, नासिका
तृतीय गीवा, स्कंध, भुजा, वक्ष
चतुर्थ नाभि, लिंग, योनि, गुदा
पंचम जानु, जंघा, पैर
षष्ठ सर्व मर्म स्थान, पाद, उंगली
सप्तम सर्व नाड़ियां
अष्टम दंत, रोम
नवम वीर्य, रज
दशम सम्पूर्णाऽवयव, क्षुधा, तृष्णा
o
पिंडों के ऊपर जल,
चंदन, सुतर, जौ, तिल, शंख
आदि से पूजन कर
संकल्पसहित श्राद्ध को पूर्ण करें।
संकल्प: कागवास गौग्रास श्वानवास पिपिलिका।
संकल्प: कागवास गौग्रास श्वानवास पिपिलिका।
तथ्य, कारण
व
प्रभाव:
o
इस
श्राद्ध से मृतात्मा को
नूतन देह प्राप्त होती
है और वह असद्गति
से सद्गति की यात्रा पर
आरूढ़ हो जाती है।
दशगात्र के पिंडदान की
समाप्ति के बाद मुंडन
कराने का विधान है।
सभी बंधु बांधवों सहित
मुंडन अवश्य कराना चाहिए।
तर्पण की
महिमा:
श्राद्ध
में जब तक सभी
पूर्वजों का तर्पण न
हो तब तक प्रेतात्मा
की सद्गति नहीं होती है।
अतः
१०, ११, १२, १३
आदि की क्रियाओं में
शास्त्रों के अनुसार तर्पण
करें।
नदी
के तट पर जनेऊ
देव, ऋषि, पितृ के
अनुसार सव्य और अपसव्य
में कुश हाथ में
लेकर हाथ के बीच,
उंगली व अगूंठे से
संपूर्ण तर्पण करें;
o
नदी
तट के अभाव में
ताम्र पात्र में जल, जौ,
तिल, पंचामृत, चंदन, तुलसी, गंगाजल आदि लेकर तर्पण
करें।
o
तर्पण
गोत्र एवं पितृ का
नाम लेकर ही निम्न
क्रम से करें – पिता
दादा परदादा माताÛ दादी परदादी सौतेली
मां नाना, परनाना, वृद्ध परनाना, नानी, परनानी, वृद्ध परनानी, चचेरा भाई, चाचा, चाची,
स्त्री, पुत्र, पुत्री, मामा, मामी, ममेरा भाई, अपना भाई,
भाभी, भतीजा, फूफा, बूआ, भांजा, श्वसुर,
सास, सद्गुरु, गुरु, पत्नी, शिष्य, सरंक्षक, मित्र, सेवक आदि। ये
सभी तर्पण पितृ तर्पण में
आते हैं। सभी नामों
से पूर्व मृतात्मा का तर्पण करें।
नोट-
जो पितृ जिस रूप
में जहां-जहां विचरण
करते हैं वहां-वहां
काल की प्रेरणा से
उन्हें उन्हीं के अनुरूप भोग
सामग्री प्राप्त हो जाती है।
जैसे यदि वे गाय
बने तो उन्हें उत्तम
घास प्राप्त होती है। (गरुड़
पुराण प्रे. ख.)
नारायण बली
प्रेतोनोपतिष्ठित
तत्सर्वमन्तरिक्षे विनश्यति। नारायणबलः कार्यो लोकगर्हा मिया खग।।
नारायणबली के बिना मृतात्मा के निमित्त किया गया श्राद्ध उसे प्राप्त न होकर अंतरिक्ष में नष्ट हो जाता है। अतः नारायणबली पूर्व श्राद्ध करने का विधान आवश्यकता पूर्वक करना ही श्रेष्ठ है।
नारायणबली के बिना मृतात्मा के निमित्त किया गया श्राद्ध उसे प्राप्त न होकर अंतरिक्ष में नष्ट हो जाता है। अतः नारायणबली पूर्व श्राद्ध करने का विधान आवश्यकता पूर्वक करना ही श्रेष्ठ है।
मरणोत्तर
(श्राद्ध संस्कार)
आँगन में यज्ञ
वेदी बनाकर पूजन तथा हवन के सारे उपकरण इकट्ठे किये जाएँ ।। मण्डप बनाने या सजावट
करने की आवश्यकता नहीं है ।। जिस व्यक्ति ने दाह संस्कार किया हो, वही इस संस्कार का भी मुख्य कार्यकर्ता, यजमान बनेगा
और वही दिवंगत आत्मा की शान्ति- सद्गति के लिए निर्धारित कर्मकाण्ड कराएगा ।।
श्राद्ध संस्कार मरणोत्तर के अतिरिक्त पितृपक्ष में अथवा देहावसान दिवस पर किये
जाने वाले श्राद्ध के रूप में कराया जाता है ।। जीवात्माओं की शान्ति के लिए
तीर्थों में भी श्राद्ध कर्म कराने का विधान है ।।
पूर्व व्यवस्था-
श्राद्ध संस्कार
के लिए सामान्य यज्ञ देव पूजन की सामग्री के अतिरिक्त नीचे लिखे अनुसार व्यवस्था
बना लेनी चाहिए ।।
- तर्पण के लिए
पात्र ऊँचे किनारे की थाली, परात, पीतल या स्टील की टहनियाँ (तसले, तगाड़ी के आकार के पात्र) जैसे उपयुक्त रहते हैं ।।
एक पात्र जिसमें तर्पण किया जाए, दूसरा पात्र जिसमें जल अर्पित करते रहें ।। तर्पण पात्र में जल पूर्ति करते रहने के लिए कलश आदि पास ही रहे ।।
इसके अतिरिक्त कुश, पात्रिवी, चावल, जौ, तिल थोड़ी- थोड़ी मात्रा में रखें ।।
एक पात्र जिसमें तर्पण किया जाए, दूसरा पात्र जिसमें जल अर्पित करते रहें ।। तर्पण पात्र में जल पूर्ति करते रहने के लिए कलश आदि पास ही रहे ।।
इसके अतिरिक्त कुश, पात्रिवी, चावल, जौ, तिल थोड़ी- थोड़ी मात्रा में रखें ।।
पिण्ड दान के
लिए लगभग एक पाव गुँथा हुआ जौ का आटा ।।
जौ का आटा न मिल सके, तो गेहूँ के आटे में जौ, तिल मिलाकर गूँथ लिया जाए ।।
पिण्ड स्थापन के लिए पत्तल, केले के पत्ते आदि ।। पिण्डदान सिंचित करने के लिए दूध- दही, मधु थोड़ा- थोड़ा रहे ।।
जौ का आटा न मिल सके, तो गेहूँ के आटे में जौ, तिल मिलाकर गूँथ लिया जाए ।।
पिण्ड स्थापन के लिए पत्तल, केले के पत्ते आदि ।। पिण्डदान सिंचित करने के लिए दूध- दही, मधु थोड़ा- थोड़ा रहे ।।
पंचबलि एवं
नैवेद्य के लिए भोज्य पदार्थ ।।
सामान्य भोज्य पदार्थ के साथ उर्द की दाल की टिकिया (बड़े) तथा दही इसके लिए विशेष रूप से रखने की परिपाटी है ।।
पंचबलि अर्पित करने के लिए हरे पत्ते या पत्तल लें ।।
सामान्य भोज्य पदार्थ के साथ उर्द की दाल की टिकिया (बड़े) तथा दही इसके लिए विशेष रूप से रखने की परिपाटी है ।।
पंचबलि अर्पित करने के लिए हरे पत्ते या पत्तल लें ।।
-पूजन वेदी पर
चित्र, कलश एवं दीपक के साथ एक छोटी ढेरी चावल की यम तथा तिल की पितृ आवाहन के
लिए बना देनी चाहिए ।।
क्रम व्यवस्था-
श्राद्ध संस्कार
में देवपूजन एवं तर्पण के साथ पञ्चयज्ञ करने का विधान है ।।
यह पंचयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ है ।।
इन्हें प्रतीक रूप में 'बलिवैश्व देव' की प्रक्रिया में भी कराने की परिपाटी है ।।
वैसे पितृयज्ञ के लिए पिण्डदान, भूतयज्ञ के लिए पंचबलि, मनुष्य यज्ञ के लिए श्राद्ध संकल्प का विधान है ।।
देवयज्ञ के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन देवदक्षिणा संकल्प तथा ब्रह्मयज्ञ के लिए गायत्री विनियोग किया जाता है ।।
अन्त्येष्टि करने वाले को प्रधान यजमान के रूप में बिठाया जाता है ।।
विशेष कृत्य उसी से कराये जाते हैं ।।
यह पंचयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ है ।।
इन्हें प्रतीक रूप में 'बलिवैश्व देव' की प्रक्रिया में भी कराने की परिपाटी है ।।
वैसे पितृयज्ञ के लिए पिण्डदान, भूतयज्ञ के लिए पंचबलि, मनुष्य यज्ञ के लिए श्राद्ध संकल्प का विधान है ।।
देवयज्ञ के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन देवदक्षिणा संकल्प तथा ब्रह्मयज्ञ के लिए गायत्री विनियोग किया जाता है ।।
अन्त्येष्टि करने वाले को प्रधान यजमान के रूप में बिठाया जाता है ।।
विशेष कृत्य उसी से कराये जाते हैं ।।
अन्य
सम्बन्धियों को भी स्वस्तिवाचन, यज्ञाहुति आदि में सम्मिलित किया जाना
उपयोगी है ।।
प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद संकल्प कराएँ ।।
फिर रक्षाविधान तक के उपचार करा लिये जाते हैं ।।
इसके बाद विशेष उपचार प्रारम्भ होते हैं ।।
प्रारम्भ में यम एवं पितृ आवाहन- पूजन करके तर्पण कराया जाता है ।।
तर्पण के बाद क्रमशः ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ कराएँ ।।
इन यज्ञों के बाद अग्नि स्थापना करके विधिवत् गायत्री यज्ञ कराएँ ।।
विशेष आहुतियों के बाद स्विष्टकृत, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न कराते हुए समय की सीमा को देखते हुए यज्ञ का समापन संक्षेप या विस्तारपूर्वक कराएँ ।।
प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद संकल्प कराएँ ।।
फिर रक्षाविधान तक के उपचार करा लिये जाते हैं ।।
इसके बाद विशेष उपचार प्रारम्भ होते हैं ।।
प्रारम्भ में यम एवं पितृ आवाहन- पूजन करके तर्पण कराया जाता है ।।
तर्पण के बाद क्रमशः ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ कराएँ ।।
इन यज्ञों के बाद अग्नि स्थापना करके विधिवत् गायत्री यज्ञ कराएँ ।।
विशेष आहुतियों के बाद स्विष्टकृत, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न कराते हुए समय की सीमा को देखते हुए यज्ञ का समापन संक्षेप या विस्तारपूर्वक कराएँ ।।
विसर्जन के
पूर्व दो थालियों में भोजन सजाकर रखें ।।
इनमें देवों और पितरों के लिए नैवेद्य अर्पित किया जाए ।।
पितृ नैवेद्य की थाली में किसी मान्य वयोवृद्ध अथवा पुरोहित को भोजन करा दें और देव नैवेद्य किसी कन्या को जिमाया जाए ।।
विर्सजन करने के पश्चात् पंचबलि के भाग यथास्थान पहुँचाने की व्यवस्था करें ।।
पिण्ड नदी में विसर्जित करने या गौओं को खिलाने की परिपाटी है ।।
इसके बाद निर्धारित क्रम से परिजनों, कन्या, ब्राह्मण आदि को भोजन कराएँ ।।
रात्रि में संस्कार स्थल पर दीपक रखें ।।
इनमें देवों और पितरों के लिए नैवेद्य अर्पित किया जाए ।।
पितृ नैवेद्य की थाली में किसी मान्य वयोवृद्ध अथवा पुरोहित को भोजन करा दें और देव नैवेद्य किसी कन्या को जिमाया जाए ।।
विर्सजन करने के पश्चात् पंचबलि के भाग यथास्थान पहुँचाने की व्यवस्था करें ।।
पिण्ड नदी में विसर्जित करने या गौओं को खिलाने की परिपाटी है ।।
इसके बाद निर्धारित क्रम से परिजनों, कन्या, ब्राह्मण आदि को भोजन कराएँ ।।
रात्रि में संस्कार स्थल पर दीपक रखें ।।
____________________
ॐ
विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे,
भारतवर्षे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते,
.......... क्षेत्रे, .......... विक्रमाब्दे
.......... संवत्सरे .......... मासानां मासोत्तमेमासे .......... मासे ..........
पक्षे .......... तिथौ .......... वासरे .......... गोत्रोत्पन्नः ..............
नामाहं...... नामकमृतात्मनः प्रेतत्वनिवृत्ति द्वारा अक्षय्यलोकावाप्तये
स्वकत्तर्व्यपालनपूवकं पितृणाद् आनृण्याथर् सर्वेषां पितृणां शान्तितुष्टिनिमित्तं
पंचयज्ञ सहितं श्राद्धकर्म अहं करिष्ये ।।
____________________
यम देवता- पूजन
यम को मृत्यु का
देवता कहा जाता है ।।
यम नियन्त्रण करने वाले को तथा समय को भी कहते हैं ।।
सृष्टि का सन्तुलन- नियन्त्रण बनाये रखने के लिए मृत्यु भी एक आवश्यक प्रक्रिया है ।।
नियन्त्रण- सन्तुलन को बनाये रखने वाली काल की सीमा का स्मरण रखने से जीवन सन्तुलित, व्यवस्थित तथा प्रखर एवं प्रगतिशीलता बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है ।।
यम नियन्त्रण करने वाले को तथा समय को भी कहते हैं ।।
सृष्टि का सन्तुलन- नियन्त्रण बनाये रखने के लिए मृत्यु भी एक आवश्यक प्रक्रिया है ।।
नियन्त्रण- सन्तुलन को बनाये रखने वाली काल की सीमा का स्मरण रखने से जीवन सन्तुलित, व्यवस्थित तथा प्रखर एवं प्रगतिशीलता बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है ।।
क्रिया और
भावना-
पूजन की वेदी पर
चावलों की एक ढेरी यम के प्रतीक रूप में रखें तथा मन्त्र के साथ उसका पूजन करें ।।
यदि समय की कमी न हो, तो कई लोग मिलकर यम- स्तोत्र का पाठ भी करें ।।
स्तुति करने का अर्थ है- उनके गुणों का स्मरण तथा अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करना ।।
हाथ में यव- अक्षत लेकर जीवन- मृत्यु चक्र का अनुशासन बनाये रखने वाले तन्त्र के अधिष्ठाता का आवाहन करें- पूजन करें ।।
भावना करें कि यम का अनुशासन हम सबके लिए कल्याणकारी बने ।।
यदि समय की कमी न हो, तो कई लोग मिलकर यम- स्तोत्र का पाठ भी करें ।।
स्तुति करने का अर्थ है- उनके गुणों का स्मरण तथा अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करना ।।
हाथ में यव- अक्षत लेकर जीवन- मृत्यु चक्र का अनुशासन बनाये रखने वाले तन्त्र के अधिष्ठाता का आवाहन करें- पूजन करें ।।
भावना करें कि यम का अनुशासन हम सबके लिए कल्याणकारी बने ।।
ॐ यमाय त्वा
मखाय त्वा, सूर्यस्य त्वा तपसे ।। देवस्त्वा सविता मध्वानक्त, पृथिव्याः
स स्पृशस्पाहि ।। अचिर्रसि शोचिरसि तपोऽसि॥- ३७.११
ॐ यमाय नमः ।।
आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।। ततो नमस्कारं करोमि॥
यम स्तोत्र
ॐ नियमस्थः
स्वयं यश्च, कुरुतेऽन्यान्नियन्त्रितान् ।। प्रहरिणे मयार्दानां, शमनाय तस्मै नमः॥१॥
यस्य स्मृत्या
विजानाति, भंगुरत्वं निजं नरः ।। प्रमादालस्यरहितो, बोधकाय
नमोऽस्तु ते॥२॥
विधाय धूलिशयनं, येनाहं मानिनां खलु ।। महतां चूणिर्तो गवर्ः, तस्मै
नमोऽन्तकाय च॥३॥
यस्य
प्रचण्डदण्डस्य, विधानेन हि त्रासिताः ।। हाहाकारं प्रकुवर्न्ति, दुष्टाः
तस्मै नमो नमः॥४॥ कृपादृष्टिरनन्ता च, यस्य सत्कमर्कारिषु ।।
पुरुषेषु नमस्तस्मै, यमाय पितृस्वामिने॥५॥
कमर्णां फलदानं
हि, कायर्मेव यथोचितम् ।। पक्षपातो न कस्यापि, नमो यस्य
यमाय च॥६॥
यस्य
दण्डभयाद्रुद्धः, दुष्प्रवृत्तिकुकमर्कृत् ।। कृतान्ताय नमस्तस्मै, प्रदत्ते
चेतनां सदा॥७॥
प्राधान्यं येन
न्यायस्य, महत्त्वं कमर्णां सदा ।। मयार्दारक्षणं कत्रेर्, नमस्तस्मै
यमाय च॥८॥
न्यायाथर्ं यस्य
सर्वे तु, गच्छन्ति मरणोत्तरम् ।। शुभाशुभं फलं प्राप्तंु, नमस्तस्म्ौ
यमाय च॥९॥
सिंहासनाधिरूढोऽत्र, बलवानपि पापकृत ।। यस्याग्रे कम्पते त्रासात्, तस्मै
नमोऽन्तकाय च॥१०॥
____________________
पितृ- आवाहन-
पूजन
इसके पश्चात् इस
संस्कार के विशेष कृत्य आरम्भ किये जाएँ ।।
कलश की प्रधान वेदी पर तिल की एक छोटी ढेरी लगाएँ, उसके ऊपर दीपक रखें ।।
इस दीपक के आस- पास पुष्पों का घेरा, गुलदस्ता आदि से सजाएँ ।।
छोटे- छोटे आटे के बने ऊपर की ओर बत्ती वाले घृतदीप भी किनारों पर सीमा रेखा की तरह लगा दें ।।
उपस्थित लोग हाथ में अक्षत लेकर मृतात्मा के आवाहन की भावना करें और प्रधान दीपक की लौ में उसे प्रकाशित हुआ देखें ।।
इस आवाहन का मन्त्र ॐ विश्वे देवास.. है ।।
सामूहिक मन्त्रोच्चार के बाद हाथों में रखे चावल स्थापना की चौकी पर छोड़ दिये जाएँ ।।
आवाहित पितृ का स्वागत- सम्मान षोडशोपचार या पञ्चोपचार पूजन द्वारा किया जाए ।।
कलश की प्रधान वेदी पर तिल की एक छोटी ढेरी लगाएँ, उसके ऊपर दीपक रखें ।।
इस दीपक के आस- पास पुष्पों का घेरा, गुलदस्ता आदि से सजाएँ ।।
छोटे- छोटे आटे के बने ऊपर की ओर बत्ती वाले घृतदीप भी किनारों पर सीमा रेखा की तरह लगा दें ।।
उपस्थित लोग हाथ में अक्षत लेकर मृतात्मा के आवाहन की भावना करें और प्रधान दीपक की लौ में उसे प्रकाशित हुआ देखें ।।
इस आवाहन का मन्त्र ॐ विश्वे देवास.. है ।।
सामूहिक मन्त्रोच्चार के बाद हाथों में रखे चावल स्थापना की चौकी पर छोड़ दिये जाएँ ।।
आवाहित पितृ का स्वागत- सम्मान षोडशोपचार या पञ्चोपचार पूजन द्वारा किया जाए ।।
ॐ विश्वेदेवास ऽ
आगत, शृणुता म ऽ इम हवम् ।। एदं बहिर्निर्षीदत ।। ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेम हवं मे,
ये अन्तरिक्षे यऽ उप द्यविष्ठ ।। ये अग्निजिह्वा उत वा यजत्रा,
आसद्यास्मिन्बहिर्षि मादयध्वम् ।- ७.३४,३३.५३
ॐ पितृभ्यो नमः
।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।।
____________________
तर्पण
दिशा एवं
प्रेरणा-
आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है ।।
जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं ।।
मिल सके, तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए ।।
तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है ।।
स्वर्गथ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने- पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है ।।
मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है ।।
सूक्ष्म शरीर को भूख- प्यास, सर्दी- गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़- मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते ।।
सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है ।।
जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं ।।
मिल सके, तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए ।।
तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है ।।
स्वर्गथ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने- पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है ।।
मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है ।।
सूक्ष्म शरीर को भूख- प्यास, सर्दी- गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़- मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते ।।
सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है ।।
इस दृश्य संसार
में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी
प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्म से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए
तृप्ति का अनुभव करता है ।।
उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है ।।
श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है ।।
इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं ।।
इन क्रियाओं का विधि- विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निधर्न से निर्धन व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है ।।
तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है ।।
उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो- चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं ।।
कुशाओं के सहारे जौ की छोटी- सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए ।।
यदि श्रद्धाञ्जलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी, किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रद्धा भावना तर्पण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के मात्र पानी इधर- उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा, इसलिए इन पितृ- कर्मों के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे- छोटे क्रिया- कृत्यों को करने के साथ- साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें ।।
उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है ।।
श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है ।।
इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं ।।
इन क्रियाओं का विधि- विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निधर्न से निर्धन व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है ।।
तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है ।।
उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो- चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं ।।
कुशाओं के सहारे जौ की छोटी- सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए ।।
यदि श्रद्धाञ्जलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी, किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रद्धा भावना तर्पण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के मात्र पानी इधर- उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा, इसलिए इन पितृ- कर्मों के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे- छोटे क्रिया- कृत्यों को करने के साथ- साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें ।।
कृतज्ञता तथा
सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलांजलि जैसे अकिंचन
उपकरणों के साथ, अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वर्गीय आत्माओं के चरणों पर अपनी
सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ ।।
इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी ।।
जिस पितर का स्वगर्वास हुआ है, उसके किये हुए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उसके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तित्व एवं वातावरण को मंगलमय ढाँचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है ।।
इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी ।।
जिस पितर का स्वगर्वास हुआ है, उसके किये हुए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उसके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तित्व एवं वातावरण को मंगलमय ढाँचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है ।।
गृह शुद्धि, सूतक निवृत्ति का उद्देश्य भी इसी निमित्त की जाती है, किन्तु तपर्ण में केवल इन्हीं एक पितर के लिए नहीं, पूर्व
काल में गुजरे हुए अपने परिवार, माता के परिवार, दादी के परिवार के तीन- तीन पीढ़ी के पितरों की तृप्ति का भी आयोजन किया
जाता है ।।
इतना ही नहीं इस पृथ्वी पर अवतरित हुए सभी महान् पुरुषों की आत्मा के प्रति इस अवसर पर श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी सद्भावना के द्वारा तृप्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।।
तर्पण को छः भागों में विभक्त किया गया है-
इतना ही नहीं इस पृथ्वी पर अवतरित हुए सभी महान् पुरुषों की आत्मा के प्रति इस अवसर पर श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी सद्भावना के द्वारा तृप्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।।
तर्पण को छः भागों में विभक्त किया गया है-
१- देव २- ऋषि-
तर्पण ३- दिव्य- मानव ४- दिव्य- पितृ ५- यम- तर्पण ६- मनुष्य- पितृ सभी तर्पण
नीचे लिखे क्रम से किये जाते हैं ।।
____________________
देव तर्पणम्
देव शक्तियाँ
ईश्वर की वे महान् विभूतियाँ हैं, जो मानव- कल्याण में सदा निःस्वार्थ भाव से
प्रयत्नरत हैं ।।
जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, विद्युत् तथा अवतारी ईश्वर अंगों की मुक्त आत्माएँ एवं विद्या, बुद्धि, शक्ति, प्रतिभा, करुणा, दया, प्रसन्नता, पवित्रता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ सभी देव शक्तियों में आती हैं ।।
यद्यपि ये दिखाई नहीं देतीं, तो भी इनके अनन्त उपकार हैं ।।
यदि इनका लाभ न मिले, तो मनुष्य के लिए जीवित रह सकना भी सम्भव न हो ।।
इनके प्रति कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए यह देव- तर्पण किया जाता है ।।
यजमान दोनों हाथों की अनामिका अँगुलियों में पवित्री धारण करें ।।
जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, विद्युत् तथा अवतारी ईश्वर अंगों की मुक्त आत्माएँ एवं विद्या, बुद्धि, शक्ति, प्रतिभा, करुणा, दया, प्रसन्नता, पवित्रता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ सभी देव शक्तियों में आती हैं ।।
यद्यपि ये दिखाई नहीं देतीं, तो भी इनके अनन्त उपकार हैं ।।
यदि इनका लाभ न मिले, तो मनुष्य के लिए जीवित रह सकना भी सम्भव न हो ।।
इनके प्रति कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए यह देव- तर्पण किया जाता है ।।
यजमान दोनों हाथों की अनामिका अँगुलियों में पवित्री धारण करें ।।
ॐ आगच्छन्तु
महाभागाः, विश्वेदेवा महाबलाः ।। ये तपर्णेऽत्र विहिताः, सावधाना
भवन्तु ते॥
जल में चावल डालें ।।
कुश- मोटक सीधे ही लें ।।
यज्ञोपवीत सव्य (बायें कन्धे पर) सामान्य स्थिति में रखें ।।
तर्पण के समय अंजलि में जल भरकर सभी अँगुलियों के अग्र भाग के सहारे अर्पित करें ।।
इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं ।। प्रत्येक देवशक्ति के लिए एक- एक अंजलि जल डालें ।। पूवार्भिमुख होकर देते चलें ।।
जल में चावल डालें ।।
कुश- मोटक सीधे ही लें ।।
यज्ञोपवीत सव्य (बायें कन्धे पर) सामान्य स्थिति में रखें ।।
तर्पण के समय अंजलि में जल भरकर सभी अँगुलियों के अग्र भाग के सहारे अर्पित करें ।।
इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं ।। प्रत्येक देवशक्ति के लिए एक- एक अंजलि जल डालें ।। पूवार्भिमुख होकर देते चलें ।।
ॐ ब्रह्मादयो
देवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन् ।।
ॐ ब्रह्म
तृप्यताम् ।।
ॐ
विष्णुस्तृप्यताम् ।
ॐ
रुद्रस्तृप्यताम् ।।
ॐ
प्रजापतितृप्यताम् ।
ॐ
देवास्तृप्यताम् ।।
ॐ छन्दांसि
तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
वेदास्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
पुराणाचायार्स्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
गन्धवार्स्तृप्यन्ताम् ।
ॐ
इतराचायार्स्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ संवत्सरः
सावयवस्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
देव्यस्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ
देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
नागास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ
सागरास्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ पर्वता
स्तृप्यन्ताम् ।ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ
यक्षास्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ रक्षांसि
तृप्यन्ताम् ।
ॐ
पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
सुपणार्स्तृप्यन्ताम् ।
ॐ भूतानि
तृप्यन्ताम् ।।
ॐ
पशवस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ
वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।।
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्
।
ॐ भूतग्रामः
चतुविर्धस्तृप्यन्ताम् ।।
____________________
ऋषि तर्पण
दूसरा तर्पण
ऋषियों के लिए है ।।
व्यास, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनि, दधीचि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ऋषि तर्पण द्वारा की जाती है ।।
ऋषियों को भी देवताओं की तरह देवतीर्थ से एक- एक अंजलि जल दिया जाता है ।।
व्यास, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनि, दधीचि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ऋषि तर्पण द्वारा की जाती है ।।
ऋषियों को भी देवताओं की तरह देवतीर्थ से एक- एक अंजलि जल दिया जाता है ।।
ॐ मरीच्यादि
दशऋषयः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान्जलाञ्जलीन् ।।
ॐ
मरीचिस्तृप्याताम् ।।
ॐ
अत्रिस्तृप्यताम् ।।
ॐ अंगिराः
तृप्यताम् ।।
ॐ
पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।।
ॐ
वसिष्ठस्तृप्यताम् ।।
ॐ
क्रतुस्तृप्यताम् ।।
ॐ
वसिष्ठस्तृप्यताम् ।।
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्
।।
ॐ
भृगुस्तृप्यताम् ।।
ॐ
नारदस्तृप्यताम् ।।
____________________
दिव्य- मनुष्य
तर्पण
तीसरा तर्पण
दिव्य मानवों के लिए है ।।
जो पूर्ण रूप से समस्त जीवन को लोक कल्याण के लिए अर्पित नहीं कर सकें, पर अपना, अपने परिजनों का भरण- पोषण करते हुए लोकमंगल के लिए अधिकाधिक त्याग- बलिदान करते रहे, वे दिव्य मानव हैं ।।
राजा हरिशचन्द्र, रन्तिदेव, शिवि, जनक, पाण्डव, शिवाजी, प्रताप, भामाशाह, तिलक जैसे महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं ।।
दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख किया जाता है ।।
जल में जौ डालें ।।
जनेऊ कण्ठ की माला की तरह रखें ।।
कुश हाथों में आड़े कर लें ।।
कुशों के मध्य भाग से जल दिया जाता है ।।
अंजलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी उँगली) की जड़ के पास से जल छोड़ें, इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं ।।प्रत्येक सम्बोधन के साथ दो- दो अंजलि जल दें-
जो पूर्ण रूप से समस्त जीवन को लोक कल्याण के लिए अर्पित नहीं कर सकें, पर अपना, अपने परिजनों का भरण- पोषण करते हुए लोकमंगल के लिए अधिकाधिक त्याग- बलिदान करते रहे, वे दिव्य मानव हैं ।।
राजा हरिशचन्द्र, रन्तिदेव, शिवि, जनक, पाण्डव, शिवाजी, प्रताप, भामाशाह, तिलक जैसे महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं ।।
दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख किया जाता है ।।
जल में जौ डालें ।।
जनेऊ कण्ठ की माला की तरह रखें ।।
कुश हाथों में आड़े कर लें ।।
कुशों के मध्य भाग से जल दिया जाता है ।।
अंजलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी उँगली) की जड़ के पास से जल छोड़ें, इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं ।।प्रत्येक सम्बोधन के साथ दो- दो अंजलि जल दें-
ॐ सनकादयः दिव्यमानवाः
आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान्जलाञ्जलीन् ।।
ॐ
सनकस्तृप्याताम्॥२॥
ॐ
सनन्दनस्तृप्यताम्॥२॥
ॐ
सनातनस्तृप्यताम्॥२॥
ॐ
कपिलस्तृप्यताम्॥२॥
ॐ
आसुरिस्तृप्यताम्॥२॥
ॐ
वोढुस्तृप्यताम्॥२॥
ॐ
पञ्चशिखस्तृप्यताम्॥२॥
____________________
दिव्य- पितृ
चौथा तर्पण
दिव्य पितरों के लिए है ।।
जो कोई लोकसेवा एवं तपश्चर्या तो नहीं कर सके, पर अपना चरित्र हर दृष्टि से आदर्श बनाये रहे, उस पर किसी तरह की आँच न आने दी ।।
अनुकरण, परम्परा एवं प्रतिष्ठा की सम्पत्ति पीछे वालों के लिए छोड़ गये ।।
ऐसे लोग भी मानव मात्र के लिए वन्दनीय हैं, उनका तर्पण भी ऋषि एवं दिव्य मानवों की तरह ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए ।।
इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों ।।
वामजानु (बायाँ घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कन्धे पर सामान्य से उल्टी स्थिति में) रखें ।।
कुशा दुहरे कर लें ।।
जल में तिल डालें ।।
अंजलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अँगूठे के सहारे जल गिराए ।।
इसे पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं ।।
प्रत्येक पितृ को तीन- तीन अंजलि जल दें ।।
जो कोई लोकसेवा एवं तपश्चर्या तो नहीं कर सके, पर अपना चरित्र हर दृष्टि से आदर्श बनाये रहे, उस पर किसी तरह की आँच न आने दी ।।
अनुकरण, परम्परा एवं प्रतिष्ठा की सम्पत्ति पीछे वालों के लिए छोड़ गये ।।
ऐसे लोग भी मानव मात्र के लिए वन्दनीय हैं, उनका तर्पण भी ऋषि एवं दिव्य मानवों की तरह ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए ।।
इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों ।।
वामजानु (बायाँ घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कन्धे पर सामान्य से उल्टी स्थिति में) रखें ।।
कुशा दुहरे कर लें ।।
जल में तिल डालें ।।
अंजलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अँगूठे के सहारे जल गिराए ।।
इसे पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं ।।
प्रत्येक पितृ को तीन- तीन अंजलि जल दें ।।
ॐ कव्यवाडादयो
दिव्यपितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलिन् ।।
ॐ
कव्यवाडनलस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥३॥
ॐ
सोमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥३॥
ॐ यमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥३॥
ॐ अयर्मा
स्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥३॥
ॐ
अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा
नमः॥३॥
ॐ सोमपाः
पितरस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥३॥
ॐ बहिर्षदः
पितरस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥३॥
____________________
यम तपर्ण
यम नियन्त्रण-
कर्त्ता शक्तियों को कहते हैं ।।
जन्म- मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति को यम कहते हैं ।।
मृत्यु को स्मरण रखें, मरने के समय पश्चात्ताप न करना पड़े, इसका ध्यान रखें और उसी प्रकार की अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करें, तो समझना चाहिए कि यम को प्रसन्न करने वाला तर्पण किया जा रहा है ।।
राज्य शासन को भी यम कहते हैं ।।
अपने शासन को परिपुष्ट एवं स्वस्थ बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को, जो कर्तव्य पालन करता है, उसका स्मरण भी यम तपर्ण द्वारा किया जाता है ।।
अपने इन्द्रिय निग्रहकर्त्ता एवं कुमार्ग पर चलने से रोकने वाले विवेक को यम कहते हैं ।।
इसे भी निरंतर पुष्ट करते चलना हर भावनाशील व्यक्ति का कर्तव्य है ।।
इन कर्तव्यों की स्मृति यम- तर्पण द्वारा की जाती है ।।
दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीर्थ से तीन- तीन अंजलि जल यमों को भी दिया जाता है ।।
जन्म- मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति को यम कहते हैं ।।
मृत्यु को स्मरण रखें, मरने के समय पश्चात्ताप न करना पड़े, इसका ध्यान रखें और उसी प्रकार की अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करें, तो समझना चाहिए कि यम को प्रसन्न करने वाला तर्पण किया जा रहा है ।।
राज्य शासन को भी यम कहते हैं ।।
अपने शासन को परिपुष्ट एवं स्वस्थ बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को, जो कर्तव्य पालन करता है, उसका स्मरण भी यम तपर्ण द्वारा किया जाता है ।।
अपने इन्द्रिय निग्रहकर्त्ता एवं कुमार्ग पर चलने से रोकने वाले विवेक को यम कहते हैं ।।
इसे भी निरंतर पुष्ट करते चलना हर भावनाशील व्यक्ति का कर्तव्य है ।।
इन कर्तव्यों की स्मृति यम- तर्पण द्वारा की जाती है ।।
दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीर्थ से तीन- तीन अंजलि जल यमों को भी दिया जाता है ।।
ॐ
यमादिचतुदर्शदेवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलिन् ।।
ॐ यमाय नमः॥३॥
ॐ धर्मराजाय
नमः॥३॥
ॐ मृत्यवे
नमः॥३॥
ॐ अन्तकाय
नमः॥३॥
ॐ वैवस्वताय ॐ
कालाय नमः॥३॥
ॐ सर्वभूतक्षयाय
नमः॥३॥
ॐ औदुम्बराय
नमः॥३॥
ॐ दध्नाय नमः॥३॥
ॐ नीलाय नमः॥३॥
ॐ परमेष्ठिने
नमः॥३॥
ॐ वृकोदराय
नमः॥३॥
ॐ चित्राय
नमः॥३॥
ॐ चित्रगुपताय
नमः॥३॥
तत्पश्चात्
निम्न मन्त्रों से यम देवता को नमस्कार करें-
ॐ यमाय
धर्मराजाय, मृत्यवे चान्तकाय च ।। वैवस्वताय कालाय, सर्वभूतक्षयाय
च॥ औदुम्बराय दध्नाय, नीलाय परमेष्ठिने ।। वृकोदराय चित्राय,
चित्रगुप्ताय वै नमः॥
____________________
मनुष्य- पितृ
इसके बाद अपने
परिवार से सम्बन्धित दिवंगत नर- नारियों का क्रम आता है ।।
१- पिता, बाबा, परबाबा, माता, दादी, परदादी ।।
२- नाना, परनाना, बूढ़े नाना, नानी परनानी, बूढ़ीनानी ।।
३- पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, बुआ, मौसी, बहिन, सास, ससुर, गुरु, गुरुपत्नी, शिष्य, मित्र आदि ।।
यह तीन वंशावलियाँ तर्पण के लिए है ।।
पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है ।।
१- पिता, बाबा, परबाबा, माता, दादी, परदादी ।।
२- नाना, परनाना, बूढ़े नाना, नानी परनानी, बूढ़ीनानी ।।
३- पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, बुआ, मौसी, बहिन, सास, ससुर, गुरु, गुरुपत्नी, शिष्य, मित्र आदि ।।
यह तीन वंशावलियाँ तर्पण के लिए है ।।
पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है ।।
.....गोत्रोत्पन्नाः
अस्मात् पितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन् ।।
अस्मत्पिता
(पिता) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मत्पितामह
(दादा) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मत्प्रपितामहः
(परदादा) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मन्माता
(माता) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा गायत्रीरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्पितामही
(दादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा सावित्रीरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्प्रत्पितामही
(परदादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं
तस्यै स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्सापतनमाता
(सौतेली माँ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं
तस्यै स्वधा नमः॥३॥
द्वितीय गोत्र
तर्पण
इसके बाद
द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करें ।।
यहाँ यह भी पहले की भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन- तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन- तीन अंजलियाँ पितृतीर्थ से दें तथा-
यहाँ यह भी पहले की भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन- तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन- तीन अंजलियाँ पितृतीर्थ से दें तथा-
अस्मन्मातामहः
(नाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मत्प्रमातामहः
(परनाना) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामहः
(बूढ़े परनाना) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं
तस्मै स्वधा नमः॥३॥
अस्मन्मातामही
(नानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्प्रमातामही
(परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामही
(बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा आदित्यारूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं
जलं तस्यै स्वधा नमः॥३॥
____________________
इतर तर्पण
जिनको आवश्यक है, केवल उन्हीं के लिए तर्पण कराया जाए-
अस्मत्पतनी
अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मत्सुतः
(बेटा) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं अमुकी देवी दा अमुक
सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥३॥
सतिलं जलं तस्मै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्कन्याः
(बेटी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्पितृव्यः
(चाचा) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मन्मातुलः
(मामा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मद्भ्राता
(अपना भाई) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मत्सापतनभ्राता
(सौतेला भाई) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्पितृभगिनी
(बुआ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मान्मातृभगिनी
(मौसी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मदात्मभगिनी
(अपनी बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्सापतनभगिनी
(सौतेली बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं
तस्यै स्वधा नमः॥३॥
अस्मद श्वशुरः
(श्वसुर) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा
नमः॥३॥
अस्मद
श्वशुरपतनी (सास) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं
तस्यै स्वधा नमः॥३॥
अस्मद्गुरु
अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥
अस्मद्
आचायर्पतनी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्यै
स्वधा नमः॥३॥
अस्मत् शिष्यः
अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्सखा
अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥
अस्मद्
आप्तपुरुषः (सम्मानीय पुरुष) अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् ।। इदं
सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥ अ
स्मद् पतिः
अमुक शर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् । इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥
____________________
निम्न मन्त्र से
पूर्व विधि से प्राणिमात्र की तुष्टि के लिए जल धार छोड़ें-
ॐ देवासुरास्तथा
यक्षा, नागा गन्धवर्राक्षसाः ।।
पिशाचा गुह्यकाः
सिद्धाः, कूष्माण्डास्तरवः खगाः॥
जलेचरा भूनिलया, वाय्वाधाराश्च जन्तवः ।।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु, मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु, मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥
नरकेषु समस्तेषु, यातनासुु च ये स्थिताः ।।
तेषामाप्यायनायैतद्, दीयते सलिलं मया॥
ये
बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः ।।
ते सर्वे
तृप्तिमायान्तु, ये चास्मत्तोयकांक्षिणः ।।
आब्रह्मस्तम्बपयर्न्तं, देवषिर्पितृमानवाः ।।
तृप्यन्तु पितरः
सर्वे, मातृमातामहादयः॥
अतीतकुलकोटीनां, सप्तद्वीपनिवासिनाम् ।।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाद्, इदमस्तु तिलोदकम् ।।
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः ।।
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः ।।
ते सर्वे
तृप्तिमायान्तु, मया दत्तेन वारिणा॥
____________________
वस्त्र-
निष्पीडन
शुद्ध वस्त्र जल
में डुबोएँ और बाहर लाकर मन्त्र को पढ़ते हुए अपसव्य भाव से अपने बायें भाग में
भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें (यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध
कर्म हो, तो वस्त्र- निष्पीड़न नहीं करना चाहिए ।)
ॐ ये के
चास्मत्कुले जाता, अपुत्रा गोत्रिणो मृताः ।। ते गृह्णन्तु मया दत्तं, वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥
____________________
भीष्म तर्पण
अन्त में भीष्म
तर्पण किया जाता है ।।
ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्देश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गये हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठात्माओं को जलदान दें-
ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्देश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गये हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठात्माओं को जलदान दें-
ॐ
वैयाघ्रपदगोत्राय, सांकृतिप्रवराय च ।। गंगापुत्राय भीष्माय, प्रदास्येऽहं
तिलोदकम्॥ अपुत्राय ददाम्येतत्, सलिलं भीष्मवर्मणे॥
____________________
देवार्घ्यदान
भीष्म तर्पण के
बाद सव्य होकर पूर्व दिशा में मुख करें ।।
नीचे लिखे मन्त्रों से देवाघ्यर्दान करें ।।
अञ्जलि में जल भरकर प्रत्येक मन्त्र के साथ जलधार अँगुलियों के अग्रभाग से चढ़ाएँ और नमस्कार करें ।।
भावना करें कि अपनी भावश्रद्धा को इन असीम शक्तियों में घूमते हुए आन्तरिक विकास की भूमिका बना रहे ।।
नीचे लिखे मन्त्रों से देवाघ्यर्दान करें ।।
अञ्जलि में जल भरकर प्रत्येक मन्त्र के साथ जलधार अँगुलियों के अग्रभाग से चढ़ाएँ और नमस्कार करें ।।
भावना करें कि अपनी भावश्रद्धा को इन असीम शक्तियों में घूमते हुए आन्तरिक विकास की भूमिका बना रहे ।।
प्रथम अर्घ्य
सृष्टि निर्माता ब्रह्मा को-
ॐ ब्रह्म
जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽ आवः ।। स बुन्ध्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठाः, सतश्च योनिमसतश्च विवः ।। ॐ ब्रह्मणे नमः॥- १३.३
दूसरा अर्घ्य
पोषणकर्त्ता भगवान् विष्णु को-
ॐ इदं
विष्णुविर्चक्रमे, त्रेधा निदधे पदम् । समूढमस्य पा सूरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः॥ -५.१५
तीसरा अघ्यर्
अनुशासन- परिवर्तन के नियन्ता शिव रुद्र महादेव को-
ॐ नमस्ते रुद्र
मन्यवऽ, उतो तऽ इषवे नमः ।। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः॥ -१६.१
चौथा अर्घ्य
भूमण्डल के चेतना- केन्द्र सवितादेव सूर्य को-
ॐ
तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि ।। धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ सवित्रे नमः॥ -३.३५
पाँचवाँ अर्घ्य
प्रकृति का सन्तुलन बनाये रखने वाले देव- मित्र के लिए-
ॐ मित्रस्य
चषर्णीधृतो, ऽवो देवस्य सानसि ।। द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम्॥ ॐ मित्राय नमः॥ - ११.६२
छठवाँ अर्घ्य
तर्पण के माध्यम से वरुणदेव के लिए-
ॐ इमं मे वरुण
श्रुधी, हवमद्या च मृडय ।। त्वामवस्युराचके ।। ॐ वरुणाय नमः ।। -२१.१
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नमस्कार
अब खड़े होकर
पूर्व की ओर से दिग्देवताओं को क्रमशः निर्दिष्ट दिशाओं में नमस्कार करें-
'ॐ
इन्द्राय नमः' प्राच्यै॥ 'ॐ अग्नये नमः'
आग्नेय्यै ।। 'ॐ यमाय नमः' दक्षिणायै॥ 'ॐ निऋतये नमः' नैऋर्त्यै॥
'ॐ वरुणाय नमः' पश्चिमायै॥ 'ॐ वायवे नमः' वायव्यै॥ 'ॐ
सोमाय नमः' उदीच्यै॥ 'ॐ ईशानाय नमः'
ऐशान्यै॥ 'ॐ ब्रह्मणे नमः' ऊध्वार्यै॥ 'ॐ अनन्ताय नमः' अधरायै॥
इसके बाद जल में
नमस्कार करें-
ॐ ब्रह्मणे नमः
।। ॐ अग्नये नमः ।। ॐ नमः ।। ॐ पृथिव्यै नमः ।। ॐ ओषधिभ्यो नमः ।। ॐ वाचे नमः ।। ॐ
वाचस्पतये नमः ।। ॐ महद्भ्यो नमः ।। ॐ विष्णवे नमः ।। ॐ अद्भ्यो नमः ।। ॐ
अपाम्पतये नमः ।। ॐ वरुणाय नमः ।।
____________________
सूर्योपस्थान
मस्तक और हाथ
गीले करें ।।
सूर्य की ओर मुख करके हथेलियाँ कन्धे से ऊपर करके सूर्य की ओर करें ।।
सूर्य नारायण का ध्यान करते हुए मन्त्र पाठ करें ।।
अन्त में नमस्कार करें और मस्तक- मुख आदि पर हाथ फेरे ।।
सूर्य की ओर मुख करके हथेलियाँ कन्धे से ऊपर करके सूर्य की ओर करें ।।
सूर्य नारायण का ध्यान करते हुए मन्त्र पाठ करें ।।
अन्त में नमस्कार करें और मस्तक- मुख आदि पर हाथ फेरे ।।
ॐ अदृश्रमस्य
केतवो, विरश्मयो जनाँ२अनु ।। भ्राजन्तो अग्नयो यथा ।। उपयामगृहीतोऽसि, सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते, योनिः सूर्याय त्वा
भ्राजाय ।। सूर्य भ्राजिष्ठ भ्राजिष्ठस्त्वं, देवेष्वसि भ्राजिष्ठोऽहं
मनुष्येषु भूयासम्॥- ८.४०
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मुखमार्जन
स्वतर्पण
मन्त्र के साथ
यजमान अपना मुख धोये, आचमन करे ।।
भावना करें कि अपनी काया में स्थित जीवात्मा की तुष्टि के लिए भी प्रयास करेंगे ।।
भावना करें कि अपनी काया में स्थित जीवात्मा की तुष्टि के लिए भी प्रयास करेंगे ।।
ॐ संवर्चसा पयसा
सन्तनूभिः, अगन्महि मनसा स शिवेन ।। त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायः, अनुमाष्टुर् तन्वो यद्विलिष्टम ॥ -२.२४
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तर्पण के बाद
पंच यज्ञ का क्रम चलाया जाता है ।।
ब्रह्मयज्ञ
ब्रह्मयज्ञ में
गायत्री विनियोग होता है ।।
मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी- हितैषी परिजन एक साथ बैठें ।।
मृतात्मा के स्नेह- उपकारों का स्मरण करें ।।
उसकी शान्ति- सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूर्वक पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अर्पित करने का भाव करें- यह न्यूनतम है ।।
यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल- जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें ।। ब्रह्ययज्ञ को उसकी पूर्णाहुति मानें ।।
मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी- हितैषी परिजन एक साथ बैठें ।।
मृतात्मा के स्नेह- उपकारों का स्मरण करें ।।
उसकी शान्ति- सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूर्वक पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अर्पित करने का भाव करें- यह न्यूनतम है ।।
यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल- जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें ।। ब्रह्ययज्ञ को उसकी पूर्णाहुति मानें ।।
संकल्प बोलें-
........
नामाहं...... नाम्नः प्रेतत्वनिवृत्ति द्वारा, ब्रह्मलोकावाप्तये........ परिमाणं गायत्री
महामन्त्रानुष्ठानपुण्यं श्रद्धापूर्वक अहं समर्पयिष्ये ।।
देवयज्ञ देवयज्ञ
में देवप्रवृत्तियों का पोषण किया जाए ।। दुष्प्रवृत्तियों के त्याग और
सत्प्रवृत्तियों के अभ्यास का उपक्रम अपनाने से देवशक्तियाँ तुष्ट होती हैं, देववृत्तियाँ पुष्ट होती हैं ।। श्राद्ध के समय संस्कार करने वाले प्रमुख
परिजन सहित उपस्थित सभी परिजनों को इस यज्ञ में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए ।। अपने
स्वभाव के साथ जुड़ी दुष्प्रवृत्तियों को सदैव के लिए या किसी अवधि तक के लिए
छोड़ने, परमार्थ गतिविधियों को अपनाने का संकल्प कर लिया जाए,
उसका पुण्य मृतात्मा के हितार्थ अर्पित किया जाए ।। संकल्प-
........
नामाहं...... नामकमृतात्मनः देवगतिप्रदानाथर् .... दिनानि यावत् मासपर्यन्तं-
वर्षपर्यन्तम्.... दुष्प्रवृत्त्युन्मूलनैः ..... सत्प्रवृत्तिसंधारणैः जायमानं
पुण्यं मृतात्मनः समुत्कर्षणाय श्रद्धापूवर्कं अहं समर्पयिष्ये ।।
पितृयज्ञ यह
कृत्य पितृयज्ञ के अंतर्गत किया जाता है ।।
जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए ।।
मरणोत्तर संस्कार में १२ पिण्डदान किये जाते हैं- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग एक- एक छटाँक आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए ।।
संकल्प के बाद एक- एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए ।।
छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक- एक पिण्ड है ।।
सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है ।।
अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, विच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समर्पित हैं ।।
ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं ।।
मछलियों को चुगाये जा सकते हैं ।।
पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें।
जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए ।।
मरणोत्तर संस्कार में १२ पिण्डदान किये जाते हैं- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग एक- एक छटाँक आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए ।।
संकल्प के बाद एक- एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए ।।
छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक- एक पिण्ड है ।।
सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है ।।
अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, विच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समर्पित हैं ।।
ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं ।।
मछलियों को चुगाये जा सकते हैं ।।
पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें।
ॐ कुशोऽसि कुश
पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निर्मितः पुरा ।। त्वय्यचिर्तेऽचिर्तः सोऽस्तु, यस्याहं नाम कीर्तये ।।
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पिण्ड समर्पण
प्रार्थना
पिण्ड तैयार
करके रखें, हाथ जोड़कर पिण्ड समर्पण के भाव सहित नीचे लिखे मन्त्र बोले जाएँ-
ॐ आब्रह्मणो ये
पितृवंशजाता, मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः ।। वंशद्वये ये मम दासभूता, भृत्यास्तथैवाश्रितसेवकाश्च॥ मित्राणि शिष्याः पशवश्च वृक्षाः, दृष्टाश्च स्पृष्टाश्च कृतोपकाराः ।। जन्मान्तरे ये मम संगताश्च, तेषां स्वधा पिण्डमहं ददामि ।।
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पिण्डदान
पिण्ड दाहिने
हाथ में लिया जाए ।। मन्त्र के साथ पितृतीर्थ मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड
किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें-
१- प्रथम पिण्ड
देवताओं के निमित्त-
ॐ उदीरतामवर
उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः ।। असुं यऽईयुरवृका ऋतज्ञाः, ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ।। -१९.४९
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२- दूसरा पिण्ड
ऋषियों के निमित्त-
ॐ अंगिरसो नः
पितरो नवग्वा, अथर्वणो भृगवः सोम्यासः ।। तेषां वय सुमतौ यज्ञियानाम्, अपि भद्रे सौमनसे स्याम॥ -१९.५०
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३- तीसरा पिण्ड
दिव्य मानवों के निमित्त-
ॐ आयन्तु नः
पितरः सोम्यासः, अग्निष्वात्ताः पथिभिदेर्वयानैः ।। अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तः, अधिब्रवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥- १९.५८
____________________
४- चौथा पिण्ड
दिव्य पितरों के निमित्त-
ॐ ऊर्जम् वहन्तीरमृतं घृतं, पयः कीलालं परिस्रुत् ।। स्वधास्थ तर्पयत् मे पितृन्॥ -२.३४
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५- पाँचवाँ
पिण्ड यम के निमित्त-
ॐ पितृव्यः
स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, प्रपितामहेभ्यः
स्वधायिभ्यः स्वधा नमः । अक्षन्पितरोऽमीमदन्त, पितरोऽतीतृपन्त
पितरः, पितरः शुन्धध्वम्॥ -१९.३६
____________________
६- छठवाँ पिण्ड
मनुष्य- पितरों के निमित्त-
ॐ ये चेह पितरों
ये च नेह, याँश्च विद्म याँ२ उ च न प्रविद्म ।। त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः, स्वधाभियञ सुकृतं जुषस्व॥ -१९.६७
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७- सातवाँ पिण्ड
मृतात्मा के निमित्त-
ॐ नमो वः पितरो
रसाय, नमो वः पितरः शोषाय, नमो वः पितरों जीवाय, नमो वः पितरः स्वधायै, नमो वः पितरों घोराय, नमो वः पितरों मन्यवे, नमो वः पितरः पितरों, नमो वो गृहान्नः पितरों, दत्त सतो वः पितरों
देष्मैतद्वः, पितरों वासऽआधत्त ।। - २.३२
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८- आठवाँ पिण्ड
पुत्रदार रहितों के निमित्त-
ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च ।। गुरुश्वसुरबन्धूनां, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः ॥ ये मे कुले लुप्त पिण्डाः, पुत्रदारविवर्जिता: ।। तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च ।। गुरुश्वसुरबन्धूनां, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः ॥ ये मे कुले लुप्त पिण्डाः, पुत्रदारविवर्जिता: ।। तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
____________________
९- नौवाँ पिण्ड
अविच्छिन्न कुलवंश वालों के निमित्त-
ॐ उच्छिन्नकुल
वंशानां, येषां दाता कुले नहि ।। धर्मपिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु
॥
____________________
१०- दसवाँ पिण्ड
गर्भपात से मर जाने वालों के निमित्त-
ॐ विरूपा
आमगभार्श्च, ज्ञाताज्ञाताः कुले मम ॥ तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु
॥
____________________
____________________
११- ग्यारहवाँ
पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त-
ॐ अग्निदग्धाश्च
ये जीवा, ये प्रदग्धाः कुले मम् ।। भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु, धर्मपिण्डं
ददाम्यहम्॥
____________________
१२- बारहवाँ
पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त
ॐ ये
बान्धवाऽबान्धवा वा, ये न्यजन्मनि बान्धवाः ।। तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु
॥
यदि तीर्थ
श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अर्पित करने
हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम- गोत्र आदि
जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं ।।
...........गोत्रस्य
अस्मद् .......नाम्नो, अक्षयतृप्त्यथरम् इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥
पिण्ड समर्पण के
बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है ।।
१- निम्न मन्त्र
पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध दोहराएँ-
ॐ पयः पृथिव्यां
पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः ।। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ।। -१८.३६
पिण्डदाता
निम्नांकित मन्त्रांश को दोहराएँ-
ॐ दुग्धं ।। दुग्धं ।। दुग्धं ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम्॥
ॐ दुग्धं ।। दुग्धं ।। दुग्धं ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम्॥
____________________
२- निम्नांकित
मन्त्र से पिण्ड पर दही चढ़ाएँ-
ॐ
दधिक्राव्णऽअकारिषं, जिष्णोरश्वस्य वाजिनः ।। सुरभि नो मुखाकरत्प्रण, आयुषि
तारिषत् ।। -२३.३२
पिण्डदाता
निम्नांकित मन्त्रांश दोहराएँ-
ॐ दधि ।। दधि ।।
दधि ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।।
____________________
३- नीचे लिखे
मन्त्रों साथ पिण्डों पर शहद चढ़ाएँ-
ॐ
मधुवाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः ।। माध्वीनर्: सन्त्वोषधीः ।। ॐ मधु नक्तमुतोषसो,
मधुमत्पाथिव रजः ।। मधु द्यौरस्तु नः पिता ।। ॐ मधुमान्नो वनस्पति,
मधुमाँ२ऽ अस्तु सूर्य: ।। माध्वीगार्वो भवन्तु नः ।। -१३.२७- २९
पिण्डदानकर्त्ता
निम्नांकित मन्त्राक्षरों को दोहराएँ-
ॐ मधु ।। मधु ।। मधु ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।।
ॐ मधु ।। मधु ।। मधु ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।। तृप्यध्वम् ।।
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भूतयज्ञ-
पञ्चबलि
भूतयज्ञ के
निमित्त पञ्चबलि प्रक्रिया की जाती है ।।
विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है ।।
अलग- अलग पत्तो या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं ।।
उरद- दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है ।।
पाँचों भाग रखें ।।
क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक- एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समर्पित करें ।।
विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है ।।
अलग- अलग पत्तो या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं ।।
उरद- दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है ।।
पाँचों भाग रखें ।।
क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक- एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समर्पित करें ।।
१- गोबलि-
पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त-
ॐ सौरभेयः
सर्वहिताः, पवित्राः पुण्यराशयः ।। प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥
इदं गोभ्यः इदं न मम् ।।
____________________
२- कुक्कुरबलि-
कत्तर्व्यष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त-
ॐ द्वौ श्वानौ
श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ ।। ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ
॥ इदं श्वभ्यां इदं न मम ॥
____________________
३- काकबलि-
मलीनता निवारक काक के निमित्त-
ॐ
ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा ।। वायसाः प्रतिगृह्णन्तु, भुमौ
पिण्डं मयोज्झतम् ।। इदं वायसेभ्यः इदं न मम ॥
____________________
४- देवबलि-
देवत्व संवधर्क शक्तियों के निमित्त-
ॐ देवाः
मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः ।। प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥ इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम् ।।
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५-
पिपीलिकादिबलि- श्रमनिष्ठा एवं सामूहिकता की प्रतीक चींटियों के निमित्त-
ॐ पिपीलिकाः
कीटपतंगकाद्याः, बुभुक्षिताः कमर्निबन्धबद्धाः ।। तेषां हि तृप्त्यथर्मिदं मयान्नं,
तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम
।।
बाद में गोबलि
गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादिबलि चींटी आदि को खिला दिया जाए ।।
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मनुष्ययज्ञ
श्राद्ध संकल्प
इसके अन्तर्गत
दान का विधान है ।।
दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निर्वाह के लिए अनिवार्य हो- कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए ।।
दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए ।।
असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर 'हराम- खाऊ' मुफ्तखोरों में अपनी गणना क्यों कराई जाए?
पूर्वजो के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है ।।
पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पयार्प्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं ।।
श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूर्वजो की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मो के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए ।।
अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए ।।
प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था ।।
उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निर्वाह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे ।।
अपना निर्वाह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था ।।
आज वैसे ब्राह्मण नहीं है, इसलिए उनका ब्रह्मभोज भी साँप के चले जाने पर लकीर पीटने की तरह है ।।
दोस्तों- रिश्तेदारों को मृत्यु के उपलक्ष्य में दावत खिलाना मूर्खता और उनका खाना निर्लज्जता है, इसलिए मृतकभोज की विडम्बना में न फँसकर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है ।
कन्या भोजन, दीन- अपाहिज, अनाथों को जरूरत की चीजें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं ।।
इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमार्थिक कार्यों ((वृक्षारोपण, विद्यालय निर्माण) के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध संकल्प के साथ की जानी चाहिए ।।
दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निर्वाह के लिए अनिवार्य हो- कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए ।।
दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए ।।
असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर 'हराम- खाऊ' मुफ्तखोरों में अपनी गणना क्यों कराई जाए?
पूर्वजो के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है ।।
पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पयार्प्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं ।।
श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूर्वजो की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मो के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए ।।
अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए ।।
प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था ।।
उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निर्वाह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे ।।
अपना निर्वाह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था ।।
आज वैसे ब्राह्मण नहीं है, इसलिए उनका ब्रह्मभोज भी साँप के चले जाने पर लकीर पीटने की तरह है ।।
दोस्तों- रिश्तेदारों को मृत्यु के उपलक्ष्य में दावत खिलाना मूर्खता और उनका खाना निर्लज्जता है, इसलिए मृतकभोज की विडम्बना में न फँसकर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है ।
कन्या भोजन, दीन- अपाहिज, अनाथों को जरूरत की चीजें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं ।।
इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमार्थिक कार्यों ((वृक्षारोपण, विद्यालय निर्माण) के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध संकल्प के साथ की जानी चाहिए ।।
संकल्प,,, नामाहं........... नामकमृतात्मनः शान्ति- सद्गति
लोकोपयोगिकायार्थर्.......... परिमाणे धनदानस्य कन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूर्वक
संकल्पम् अहं करिष्ये ॥
संकल्प के बाद
निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत- पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ ।।
ॐ उशन्तस्त्वा
निधीमहि, उशन्तः समिधीमहि ।। उशन्नुशतऽआ वह, पितृन्हविषेऽअत्तवे॥
ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वाऽवतु बृहत्साम, पञ्चदशस्तोमो
ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥ -१९.७०, १०.११
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पञ्चयज्ञ पूरे
करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री- यज्ञ सम्पन्न करें, फिर नीचे लिखे मन्त्र से ३ विशेष आहुतियाँ दें ।।
ॐ सूयर्पुत्राय
विद्महे, महाकालाय धीमहि ।। तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा ।। इदं यमाय इदं न मम्॥
-य०गा०
इसके बाद
स्विष्टकृत पूर्णाहुति आदि करते हुए समापन करें ।।
स्विष्टकृत
ॐ अग्नये
स्विष्टकृते स्वाहा, इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम |
कटोरी या दोना
में बची हुई हवन सामग्री को निम्न मंत्र बोलते हुए तीन बार में होम दें |
(१) ॐ श्रीपतये
स्वाहा |
(२) ॐ भुवनपतये
स्वाहा |
(३) ॐ भूतानां
पतये स्वाहा |
पूर्णाहुति
ॐ पूर्णमद:
पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
ॐ शांति: शांति: शांतिः
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
ॐ शांति: शांति: शांतिः
ओम् सर्वं वै
पूर्णं स्वाहा।।
विसर्जन के पूर्व
पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अर्पित करें,
फिर क्रमशः
क्षमा-
प्रार्थना,
पिण्ड विसजर्न,
पितृ विसर्जन
तथा
देव विसर्जन
करें ।।
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विसर्जन
पिण्ड विसर्जन-
नीचे लिखे मन्त्र के साथ पिण्डों पर जल सिञ्चित करें ।।
ॐ देवा
गातुविदोगातुं, वित्त्वा गातुमित ।। मनसस्पत ऽ इमं देव, यज्ञ स्वाहा
वाते धाः॥ -८.२१
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पितृ विसर्जन-
पितरों का विसर्जन तिलाक्षत छोड़ते हुए करें ।।
ॐ यान्तु
पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः ।। सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न्
कामान् ददन्तु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः
पुण्यकर्मणां ।। सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं
सुपुष्कलान ॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः ।।
वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ॥
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देव विसजर्न-
अन्त में पुष्पाक्षत छोड़ते हुए देव विसर्जन करें ।।
ॐ यान्तु
देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम् ।। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थ, पुनरागमनाय
च॥
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एकादशाह श्राद्ध:
o ११ वें दिन शालिग्राम पूजन कर सत्येश (श्रीकृष्ण, श्री सत्यनारायण पूजन) का उनकी अष्ट पटरानियों सहित पूजन करें। सत्येश पूजन श्राद्ध कर्ता के सभी पापों के प्रायश्चित के लिए किया जाता है।
o तत्पश्चात् हेमाद्री श्रवण करें- हमने जन्म से लेकर अभी तक जो कर्म किये हैं उन्हें पुण्य और पाप के रूप में पृथक-पृथक अनुभव करना जिसमें भगवान ब्रह्मा की उत्पत्ति से लेकर वर्णों के धर्मों तक का वर्णन है।
चार महापाप: ब्रह्म हत्या, सुरापान, स्वर्ण चोरी, परस्त्री गमन।
दशविधि स्नान: गोमूत्र, गोमय, गोरज, मृत्तिका, भस्म, कुश जल, पंचामृत, घी, सर्वौषधि, सुवर्ण तीर्थों के जल इन सभी वस्तुओं से स्नान करें।
o पांच ब्राह्मणों से पंचसूक्तों का पाठ करवाएं।
o भगवान के सभी नामों का उच्चारण करते हुए विष्णु तर्पण करें।
o प्रायश्चित होम: मृतात्मा की अग्निदाह आदि सभी क्रियाओं में होने वाली त्रुटियों के निवारण के निमित्त प्रायश्चित होम का विधान है। शास्त्रोक्त प्रमाण से हवन कर स्नान करें।
o पंच देवता की स्थापना व पूजन: ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, तत्पुरुष इन देवताओं का पूजन करें।
मध्यमषोडशी के १६ पिंड दान:
प्रथम विष्णु द्वितीय शिव तृतीय सपरिवार यम चतुर्थ सोमराज पंचम हव्यवाहन षष्ठ कव्यवाह सप्तम काल अष्टम रुद्र नवम पुरुष दशम प्रेत एकादश विष्णु प्रथम ब्रह्मा द्वितीय विष्णु तृतीय महेश चतुर्थ यम पंचम तत्पुरुष
नोट- ये सभी पिंडदान सव्य जनेऊ से किए जाते हैं।
दान पदार्थ: स्वर्ण, वस्त्र, चांदी, गुड, घी, नमक, लोहा, तिल, अनाज, भैंस, पंखा, जमीन, गाय, सोने से शृंगारित बेल।
नोट- ये सभी पिंडदान सव्य जनेऊ से किए जाते हैं।
दान पदार्थ: स्वर्ण, वस्त्र, चांदी, गुड, घी, नमक, लोहा, तिल, अनाज, भैंस, पंखा, जमीन, गाय, सोने से शृंगारित बेल।
वृषोत्सर्ग:
वृषोत्सर्ग के बिना श्राद्ध संपन्न नहीं होता है।
o ईशान कोण में रुद्र की स्थापना करें, जिसमें रुद्रादि देवताओं का आवाहन हो। स्थापना जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना, सांवा आदि सप्त धान्य पर करें।
o प्रेतमातृका की स्थापना करें।
o फिर वृषोत्सर्ग पूर्वक अग्नि आदि देवों का ह्वन करें। यदि बछड़ा या बछिया उपलब्ध हो तो शिव पार्वती का आवाहन कर पाद्य, अर्घादी से पूजन करें।
o फिर वृषभ व गाय दान का संकल्प करें।
o विवाह के शृंगार का दान करें।
एकादशाह को होने वाला वृषोत्सग नित्यकर्म है।:
o वृषोत्सर्ग कर वृष को किसी अरण्य, गौशाला, तीर्थ, एकांत स्थान अथवा निर्जन वन में छोड़ दें।
o शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ भी कराएं।
o वृषोत्सर्ग प्रेतात्मा की अधूरी इच्छाएं पूरी हों, इसलिए करते हैं।
आद्यश्राद्ध:
आद्यश्राद्ध के दान पदार्थ छतरी, कमंडल, थाली, कटोरी, गिलास, चम्मच, कलश शय्यादान।
१४ प्रकार के दान:
o शय्या, गौ, घर, आसन, दासी, अश्व, रथ, हाथी, भैंस, भूमि, तिल, स्वर्ण, तांबूल, आयुध।
तिल व घी का पात्र।
तिल व घी का पात्र।
स्त्री के मृत्यु पर निम्नलिखित पदार्थों का दान करना चाहिए:
o अनाज, पानी मटका, चप्पल, कमंडल, छत्री, कपड़ा, लकड़ी, लोहे की छड़, दीया, तल, पान, चंदन, पुष्प, साड़ी। निम्नलिखित वस्तुओं का दान एक वर्ष तक नित्य करना चाहिए। अन्न कुंभ दीप ऋणधेनु। धनाभाव में निष्क्रिय द्रव्य का दान भी कर सकते हैं।
षोडशमासिक श्राद्ध:
शव की विशुद्धि के लिए आद्य श्राद्ध के निमित्त उड़द का एक पिंडदान अपसव्य होकर अवश्य करें। आद्य श्राद्ध से संपूर्ण श्राद्ध मृतात्मा को ही प्राप्त होता है। दूसरे श्राद्ध से अन्य प्रेतात्मा यह क्रिया नहीं ले सकतीं।
o अपसव्य होकर गोत्र नाम बोलकर करें।
प्रथम उनमासिक श्राद्ध निमित्त
द्वितीय द्विपाक्षिक मासिक ‘‘
तृतीय त्रिपाक्षिक मासिक ‘’
चतुर्थ तृतीय मासिक ‘‘
पंचम चतुर्थ मासिक ‘‘
षष्ठ पंचम मासिक ‘‘
सप्तम षणमासिक ‘‘
अष्टम उनषणमासिक ‘‘
नवम सप्तम मासिक ‘‘
दशम अष्टम मासिक ‘‘
एकादश नवम मासिक ‘‘
द्वादश दशम मासिक ‘‘
त्रयोदश एकादश मासिक ‘‘
चतुर्दश द्वादश मासिक ‘‘
पंचदश उनाब्दिक मासिक ‘‘
षोडशमासिक में प्रथम आद्य श्राद्ध का पिंड भी इसी में शामिल करते हैं।
प्रथम उनमासिक श्राद्ध निमित्त
द्वितीय द्विपाक्षिक मासिक ‘‘
तृतीय त्रिपाक्षिक मासिक ‘’
चतुर्थ तृतीय मासिक ‘‘
पंचम चतुर्थ मासिक ‘‘
षष्ठ पंचम मासिक ‘‘
सप्तम षणमासिक ‘‘
अष्टम उनषणमासिक ‘‘
नवम सप्तम मासिक ‘‘
दशम अष्टम मासिक ‘‘
एकादश नवम मासिक ‘‘
द्वादश दशम मासिक ‘‘
त्रयोदश एकादश मासिक ‘‘
चतुर्दश द्वादश मासिक ‘‘
पंचदश उनाब्दिक मासिक ‘‘
षोडशमासिक में प्रथम आद्य श्राद्ध का पिंड भी इसी में शामिल करते हैं।
दान संकल्प कर निम्नलिखित पदार्थों का दान करें:
o पंखा, लकड़ी, छतरी, चावल, आईना, मुकुट, दही, पान, अगरचंदन, केसर, कपूर, स्वर्ण, घी, घड़ा (घी से भरा), कस्तूरी आदि।
o यदि दान देने में समर्थ न हों तो तुलसी का पान रख यथाशक्ति द्रव्य ब्राह्मण को दे दें। इससे कर्म पूर्ण होता है।
o यह अधिक मास हो तो १६ पिंड रखे जाते हैं अन्यथा १५ पिंड रखने का विधान है।
o यह श्राद्ध हर महीने एक-एक पिंड रख कर करना पड़ता है लेकिन १६ महीनों का पिंडदान एक साथ एकादशाह के निमित्त रखकर किया जाता है। इससे मृतात्मा की आगे की यात्रा को सुगम होती है।
सपिंडीकरण श्राद्ध:
o सपिंडीकरण श्राद्ध के द्वारा प्रेत श्राद्ध का मेलन करने से पितृपंक्ति की प्राप्ति होती है। सपिंडीकरण श्राद्ध में पिता, पितामह तथा प्रपितामह की अर्थियों का संयोजन करना आवश्यक है।
o इस श्राद्ध में विष्णु पूजन कर काल काम आदि देवों का चट पूजन कर पितरों का चट पूजन पान पर करें।
o प्रेत के प्रपितामह का अर्धपात्र हाथ में उठाकर उसमें स्थित तिल, पुष्प, पवित्रक, जल आदि प्रेतपितामह के अर्धपात्र में छोड़ दें। ये कर्म शास्त्रोक्त विधानानुसार करें।
o सपिंडीकरण श्राद्ध में सर्वप्रथम गोबर से लिपी हुई भूमि पर सबसे पहले नारियल के आकार का पिंड प्रेत का नाम बोलकर रखें। फिर गोल पिंड क्रमशः पिता, दादा व परदादा के निमित्त रखें। (यदि सीधे तो सास का वंश लें)
o भगवन्नाम लेकर स्वर्ण या रजत के तार से बड़े पिंड का छेदन करें। फिर क्रमशः पिता, दादा और परदादा में संयोजन कर सभी पिंडों का पूजन करें। एक पिंड काल-काम के निमित्त साक्षी भी रखें।
तेरहवें का श्राद्ध:
o द्वादशाह का श्राद्ध करने से प्रेत को पितृयोनि प्राप्त होती है। लेकिन त्रयोदशाह का श्राद्ध करने से पूर्वकृत श्राद्धों की सभी त्रुटियों का निवारण हो जाता है और सभी क्रियाएं पूर्णता को प्राप्त होकर भगवान नारायण को प्राप्त होती हैं ।
o तेरहवें का श्राद्ध अति आवश्यक है।
यह श्राद्ध १३ वें दिन ही करना चाहिए। लोकव्यवहार में यही श्राद्ध वर्णों के हिसाब से अलग-अलग दिनों को किया जाता है। लेकिन गरुड़ पुराण के अनुसार तेरहवीं तेरहवें दिन ही करना चाहिए।
इस श्राद्ध में अनंतादि चतुर्दश देवों का कुश चट में आवाहन पूजन करें।
फिर ललितादि १३ देवियों का पूजन ताम्र कलश में जल के अंदर करें।
सूत्र से कलश को बांध दें।
फिर कलश के चारों ओर कुंकुम के तेरह तिलक करें।
इन सभी क्रियाओं के उपरांत अपसव्य होकर चट के ऊपर पितृ का आवहनादि कर पूजन करें।