हिन्दू धर्म में शवों का अंतिम संस्कार महाब्राह्मण
करते हैं।
मृत्यु' जीवन का एक अटल सत्य है ।।
इसे जरा- जीर्ण को नवीन- स्फूर्तिवान् जीवन में रूपान्तरित करने वाला महान देवता भी कह सकते हैं ।।
जीव चेतना एक यज्ञीय प्रक्रिया के अंतर्गत पंच तत्वों से जुड़कर जीवन का दृश्य रूप बनाती है ।।
पंचतत्वों से उसकी विदाई के क्रम को भी एक यज्ञीय संस्कार का रूप देव संस्कृति ने दिया है ।।
इसे गरिमामय ढंग से अपनाया और किया जाना चाहिए ।।
मृत्यु' जीवन का एक अटल सत्य है ।।
इसे जरा- जीर्ण को नवीन- स्फूर्तिवान् जीवन में रूपान्तरित करने वाला महान देवता भी कह सकते हैं ।।
जीव चेतना एक यज्ञीय प्रक्रिया के अंतर्गत पंच तत्वों से जुड़कर जीवन का दृश्य रूप बनाती है ।।
पंचतत्वों से उसकी विदाई के क्रम को भी एक यज्ञीय संस्कार का रूप देव संस्कृति ने दिया है ।।
इसे गरिमामय ढंग से अपनाया और किया जाना चाहिए ।।
व्याख्या
संस्कार प्रयोजन-
भारतीय संस्कृति यज्ञीय आदर्शों की संस्कृति है
।।
जिन्दगी जीने का सही तरीका यह है कि उसे यज्ञीय आदर्शों के अनुरूप जिया जाए ।।
उसका जब अवसान हो, तो भी उसे यज्ञ भगवान् की परम- पवित्र गोदी में ही सुला दिया जाए ।।
यह उचित है ।।
जीवन की समाप्ति यज्ञ आयोजन में ही होनी चाहिए ।।
यों स्थूल रूप से अग्नि जलाकर उसमें कोई वस्तु होमा यज्ञ या अग्निहोत्र कहलाता है, पर उसका तात्त्विक अभिप्राय परमार्थ प्रयोजन से ही है ।।
जिस प्रकार मेवा, मिष्ठान्न, घृत, औषधि आदि कीमती एवं आवश्यक वस्तुओं को वायु शुद्धि के लिए बिखेर दिया जाता है उसी प्रकार मानव वैभव की समस्त विभूतियों को विश्वमंगल के लिए बिखेरते रहा जाए, यही तात्त्विक यह है ।।
अग्निहोत्र के द्वारा होताओं को यही भावना हृदयंगम करनी पड़ती है ।।
स्वार्थपरता की पाशविकता से छुटकारा पाकर परमार्थ प्रवृत्तियों को विकसित करने का उत्साह जाग्रत् करना पड़ता है ।।
जिन्दगी जीने का सही तरीका यह है कि उसे यज्ञीय आदर्शों के अनुरूप जिया जाए ।।
उसका जब अवसान हो, तो भी उसे यज्ञ भगवान् की परम- पवित्र गोदी में ही सुला दिया जाए ।।
यह उचित है ।।
जीवन की समाप्ति यज्ञ आयोजन में ही होनी चाहिए ।।
यों स्थूल रूप से अग्नि जलाकर उसमें कोई वस्तु होमा यज्ञ या अग्निहोत्र कहलाता है, पर उसका तात्त्विक अभिप्राय परमार्थ प्रयोजन से ही है ।।
जिस प्रकार मेवा, मिष्ठान्न, घृत, औषधि आदि कीमती एवं आवश्यक वस्तुओं को वायु शुद्धि के लिए बिखेर दिया जाता है उसी प्रकार मानव वैभव की समस्त विभूतियों को विश्वमंगल के लिए बिखेरते रहा जाए, यही तात्त्विक यह है ।।
अग्निहोत्र के द्वारा होताओं को यही भावना हृदयंगम करनी पड़ती है ।।
स्वार्थपरता की पाशविकता से छुटकारा पाकर परमार्थ प्रवृत्तियों को विकसित करने का उत्साह जाग्रत् करना पड़ता है ।।
मनुष्य शरीर में से प्राण निकल जाने पर उसका क्या
किया जाए? इसका उत्तर देर तक सोचने के बाद ऋषियों को इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा
कि नर- तन का प्रयोजन किसी के लिए उत्सर्ग होने में सिद्घ होता है ।। इसका एक बृहत्
प्रदर्शन करते हुए मृत शरीर की अन्त्येष्टि की जाए ।।
सभी स्वजन- सम्बन्धी, मित्र- परिचित जो अन्तिम विदाई देने आएँ, उन्हें इस जीवनोद्देश्य को समझने का अधिक स्पष्ट अवसर मिले, इसलिए यज्ञ का एक विशाल आयोजन करते हुए, उसी में मृतक का शरीर होम दिया जाता है ।।
जिन्दगी की सारी रीति- नीति, यज्ञदर्शन से ही प्रभावित रहती है, इसीलिए उसका अवसान भी उस महान् सत्य के साथ सम्बद्घ कर दिया जाए, तो यह उचित ही होगा ।।
मृतक के स्वजनों को शोक होना स्वाभाविक है ।।
इस शोक प्रवाह को यज्ञ आयोजन की व्यवस्था में मोड़ दिया जाय, जिससे उनका चित्त बहलता है और शोक- सन्ताप को हलका करने का अवसर मिलता है ।।
संस्कार से सम्बन्धित प्रेरणाएँ, जीवन के उपयोगी सिद्धान्तों को हृदयंगम करने में सहयोगी सिद्ध होती हैं, ऐसे ही अनेक प्रयोजन अन्त्येष्टि के है ।।
सभी स्वजन- सम्बन्धी, मित्र- परिचित जो अन्तिम विदाई देने आएँ, उन्हें इस जीवनोद्देश्य को समझने का अधिक स्पष्ट अवसर मिले, इसलिए यज्ञ का एक विशाल आयोजन करते हुए, उसी में मृतक का शरीर होम दिया जाता है ।।
जिन्दगी की सारी रीति- नीति, यज्ञदर्शन से ही प्रभावित रहती है, इसीलिए उसका अवसान भी उस महान् सत्य के साथ सम्बद्घ कर दिया जाए, तो यह उचित ही होगा ।।
मृतक के स्वजनों को शोक होना स्वाभाविक है ।।
इस शोक प्रवाह को यज्ञ आयोजन की व्यवस्था में मोड़ दिया जाय, जिससे उनका चित्त बहलता है और शोक- सन्ताप को हलका करने का अवसर मिलता है ।।
संस्कार से सम्बन्धित प्रेरणाएँ, जीवन के उपयोगी सिद्धान्तों को हृदयंगम करने में सहयोगी सिद्ध होती हैं, ऐसे ही अनेक प्रयोजन अन्त्येष्टि के है ।।
आजकल लोग मुर्दे को ऐसे ही लकड़ियों के ढेर के
बीच पटककर जला देते हैं ।।
यह अव्यवस्था मृतक के प्रति उपेक्षा एवं असम्मान दिखाने जैसी हैं ।।
इस अवसर पर उतावली या उपेक्षा शोभा नहीं देती ।।
उचित यही है कि अन्त्येष्टि यज्ञ को उसी प्रेम और सम्मान के साथ सम्पन्न किया जाए ।।
इस संस्कार का हर कार्य ठीक व्यवस्था एवं सावधानी के साथ करना चाहिए, जिसमें कि स्वजनों का प्रेम ओर सम्मान टपकता हो ।।
यह अव्यवस्था मृतक के प्रति उपेक्षा एवं असम्मान दिखाने जैसी हैं ।।
इस अवसर पर उतावली या उपेक्षा शोभा नहीं देती ।।
उचित यही है कि अन्त्येष्टि यज्ञ को उसी प्रेम और सम्मान के साथ सम्पन्न किया जाए ।।
इस संस्कार का हर कार्य ठीक व्यवस्था एवं सावधानी के साथ करना चाहिए, जिसमें कि स्वजनों का प्रेम ओर सम्मान टपकता हो ।।
पूर्व व्यवस्था-
अन्त्येष्टि संस्कार के समय शोक का वातावरण होता
है ।।
अधिकांश व्यक्ति ठीक प्रकार सोचने- करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए व्यवस्था पर विशेष ध्यान देना पड़ता है ।।
सन्तुलित बुद्धि के अनुभवी व्यक्तियों को इसके लिए सहयोगी के रूप में नियुक्त कर लेना चाहिए ।।
अधिकांश व्यक्ति ठीक प्रकार सोचने- करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए व्यवस्था पर विशेष ध्यान देना पड़ता है ।।
सन्तुलित बुद्धि के अनुभवी व्यक्तियों को इसके लिए सहयोगी के रूप में नियुक्त कर लेना चाहिए ।।
___________________________
व्यवस्था के सूत्र इस प्रकार हैं-
मृतक के लिए नये वस्त्र, मृतक शय्या (ठठरी, उस
पर बिछाने- उढ़ाने के लिए कुश एवं वस्त्र (मोटक) तैयार रखें ।।
मृतक शय्या की सज्जा के लिए पुष्प आदि उपलब्ध कर
लें ।।
पिण्डदान के लिए जौ का आटा न मिले, तो गेहूँ के
आटे में जौ मिलाकर गूँथ लिया जाता है ।।
कई स्थानों पर संस्कार के लिए अग्नि घर से ले जाने
का प्रचलन होता है ।।
यदि ऐसा है, तो उसकी व्यवस्था कर ली जाए, अन्यथा श्मशान घाट पर अग्नि देने अथवा मन्त्रों के साथ माचिस से अग्नि तैयार करने का क्रम बनाया जा सकता है ।।
यदि ऐसा है, तो उसकी व्यवस्था कर ली जाए, अन्यथा श्मशान घाट पर अग्नि देने अथवा मन्त्रों के साथ माचिस से अग्नि तैयार करने का क्रम बनाया जा सकता है ।।
पूजन की थाली, रोली, अक्षत, पुष्प, अगरबत्ती, माचिस
आदि उपलब्ध कर लें ।।
सुगन्धित हवन सामग्री, घी, सुगन्धित समिधाएँ, चन्दन,
अगर- तगर, सूखी तुलसी आदि समयानुकूल उचित मात्रा में एकत्रित कर लें ।।
यदि वर्षा का मौसम हो, तो अग्नि प्रज्वलित करने
के लिए सूखा फूस, पिसी हुई राल, बूरा आदि पर्याप्त मात्रा में रख लेने चाहिए ।।
पूर्णाहुति (कपाल- क्रिया) के लिए नारियल का गोला
छेद करके घी डालकर तैयार रखें ।।
- वसोर्धारा आदि घृत की आहुति के लिए एक लम्बे
बाँस आदि में लोटा या अन्य कोई ऐसा पात्र बाँधकर तैयार कर लिया जाए, जिससे घी की आहुति
दी जा सके ।।
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क्रम व्यवस्था-
अन्त्येष्टि संस्कार भी अन्य संस्कारों जैसा दिखावा
बनकर रह गया है ।।
इसे भी संस्कार की गरिमा दी जानी चाहिए ।।
मृतात्मा की सद्गति के लिए किए जाने वाले कर्मकाण्ड के समय, उसे कराने वाले पुरोहित, करने वाले सम्बन्धी तथा उपस्थित हितैषियों आदि सभी का भावनात्मक एकीकरण किया जाना आवश्यक होता है ।।
इस कर्मकाण्ड के समय संचालक को विशेष विवेकशीलता तथा सन्तुलित वास्तविकता का प्रमाण देना होता है ।।
मृत्यु के साथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दर्शन एवं प्रेरणाएँ जुड़ी हैं किन्तु शोक के वातावरण में केवल आदर्शवादिता के भाषण बेतुके लगते हैं, इसलिए हर महत्त्वपूर्ण शिक्षण संवेदनाओं के साथ जोड़कर सन्तुलित शब्दों में किया जाना चाहिए ।।
इसे भी संस्कार की गरिमा दी जानी चाहिए ।।
मृतात्मा की सद्गति के लिए किए जाने वाले कर्मकाण्ड के समय, उसे कराने वाले पुरोहित, करने वाले सम्बन्धी तथा उपस्थित हितैषियों आदि सभी का भावनात्मक एकीकरण किया जाना आवश्यक होता है ।।
इस कर्मकाण्ड के समय संचालक को विशेष विवेकशीलता तथा सन्तुलित वास्तविकता का प्रमाण देना होता है ।।
मृत्यु के साथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दर्शन एवं प्रेरणाएँ जुड़ी हैं किन्तु शोक के वातावरण में केवल आदर्शवादिता के भाषण बेतुके लगते हैं, इसलिए हर महत्त्वपूर्ण शिक्षण संवेदनाओं के साथ जोड़कर सन्तुलित शब्दों में किया जाना चाहिए ।।
संस्कार को दो वर्ग किये जा सकते हैं-
(१) घर पर और मार्ग में,
(२) श्मशान घाट पर किए जाने वाले संस्कार ।।
पूर्व व्यवस्था के संकेतों के अनुसार सारी व्यवस्था
घर पर ही जुटा लेनी चाहिए ।।
घर के अन्दर मृतक को नहला-धुलाकर, वस्त्र पहनाकर
तैयार करने का क्रम तथा बाहर शय्या (ठठरी) तैयार करने, आवश्यक सामग्री जुटाने का क्रम
एक साथ चालू किया जा सकता है ।।
अन्दर शव संस्कार कराके, संकल्प, पिण्डदान करके
शव बाहर लेकर शय्या (ठठरी) पर रखा जाता है, वहाँ प्राथमिक पुष्पाञ्जलि देकर श्मशान
यात्रा आरम्भ कर दी जाती है ।।
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शव संस्कार
दिशा एवं प्रेरणा
भारतीय संस्कृति, देव संस्कृति जीवन के अनन्त प्रवाह
को मान्यता देती है ।।
मृत्यु जीवन को छीन लेने वाली भयावनी वस्तु नहीं, जीवन का जीर्णोद्धार करने वाली हितकारी प्रक्रिया मानी जाती है ।।
जब आत्मा महत्- तत्त्व की ओर बढ़ गई, तो शरीरगत पंचतत्त्वों को भी पंचमहाभूतों में परिवर्तित करा देते हैं ।।
जीवात्मा को सद्गति देने के साथ कायागत पंचतत्त्वों को पंचमहाभूतों में मिलाने के लिए यज्ञीय परिपाटी अपनाई जाती है ।।
इसलिए शव को पवित्र किया जाता है ।।
मृत्यु जीवन को छीन लेने वाली भयावनी वस्तु नहीं, जीवन का जीर्णोद्धार करने वाली हितकारी प्रक्रिया मानी जाती है ।।
जब आत्मा महत्- तत्त्व की ओर बढ़ गई, तो शरीरगत पंचतत्त्वों को भी पंचमहाभूतों में परिवर्तित करा देते हैं ।।
जीवात्मा को सद्गति देने के साथ कायागत पंचतत्त्वों को पंचमहाभूतों में मिलाने के लिए यज्ञीय परिपाटी अपनाई जाती है ।।
इसलिए शव को पवित्र किया जाता है ।।
शोक इस पुण्य प्रक्रिया में बाधक बनता है ।।
दुःख स्वाभाविक है ।।
दुःख उसे होता है, जिसे मृतात्मा से स्नेह हो, उस स्नेह को जीवन्त रखना चाहिए किन्तु उसे शोक परक बनाने की अपेक्षा मृतात्मा की सद्गति को महत्त्व देते हुए निर्धारित कर्मकाण्ड में भावनात्मक योग सभी को देना चाहिए ।।
सभी का ध्यान आकर्षित करके, संस्कार के अनुरूप वातावरण बनाकर क्रम आरम्भ किया जाए ।।
प्रथा के अनुसार कहीं पर घर में ही स्नान कराके ले जाते हैं कहीं पर नदी समीप हो, तो वहाँ स्नान कराते हैं, घर पर स्नान कराने में यह लाभ है कि स्वच्छ वस्त्र भी वहाँ आसानी से पहनाएँ जा सकते हैं ।।
दुःख स्वाभाविक है ।।
दुःख उसे होता है, जिसे मृतात्मा से स्नेह हो, उस स्नेह को जीवन्त रखना चाहिए किन्तु उसे शोक परक बनाने की अपेक्षा मृतात्मा की सद्गति को महत्त्व देते हुए निर्धारित कर्मकाण्ड में भावनात्मक योग सभी को देना चाहिए ।।
सभी का ध्यान आकर्षित करके, संस्कार के अनुरूप वातावरण बनाकर क्रम आरम्भ किया जाए ।।
प्रथा के अनुसार कहीं पर घर में ही स्नान कराके ले जाते हैं कहीं पर नदी समीप हो, तो वहाँ स्नान कराते हैं, घर पर स्नान कराने में यह लाभ है कि स्वच्छ वस्त्र भी वहाँ आसानी से पहनाएँ जा सकते हैं ।।
___________________________
क्रिया और भावना-
घर में भूमि धोकर गोबर से लीपकर शुद्ध करके, इस
पर स्वस्तिक आदि लिखकर तैयार रखें ।।
शव को शुद्ध जल, गंगाजल से स्नान कराकर या गीले कपड़ों से पोंछकर, शुद्ध वस्त्र पहनाकर उस स्थान पर लिटाएँ ।।
मृतक कर्म करने वाले पवित्र जल लेकर शव पर सिंचन करें ।।
भावना करें कि शरीरगत पञ्चभूतों को यज्ञ के उपयुक्त बना रहे हैं, भूल से इनका उपयोग गलत कार्यों मे हुआ, तो शरीर यज्ञ के पूर्व उन कुसंस्कारों को दूर कर रहे हैं ।।:
मन्त्र बोलकर शव स्नान कराएँ ।।
शव को शुद्ध जल, गंगाजल से स्नान कराकर या गीले कपड़ों से पोंछकर, शुद्ध वस्त्र पहनाकर उस स्थान पर लिटाएँ ।।
मृतक कर्म करने वाले पवित्र जल लेकर शव पर सिंचन करें ।।
भावना करें कि शरीरगत पञ्चभूतों को यज्ञ के उपयुक्त बना रहे हैं, भूल से इनका उपयोग गलत कार्यों मे हुआ, तो शरीर यज्ञ के पूर्व उन कुसंस्कारों को दूर कर रहे हैं ।।:
मन्त्र बोलकर शव स्नान कराएँ ।।
ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवः ता नऽऊर्जे दधातन, महे रणाय
चक्षसे ।। ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः ।। उशतीरिव मातरः ।। ॐ तस्माऽअरंगमामवो,
यस्य क्षयाय जिन्वथ ।। आपो जन यथा च नः ॥ ३६.१४- १६-
अब चन्दन और पुष्पादि से शव को सजायें।
भावना करें
कि पञ्भूतों को ऐसा संस्कार दे रहे हैं, जो भविष्य में किसी का शरीर बने, तो उसके आदर्श
जीवन में सहायक सिद्ध हों ।।
यह मन्त्र बोलते हुए शव को सजाएँ-
यह मन्त्र बोलते हुए शव को सजाएँ-
ॐ समं सुनुत, यमाय जुहुता हविः ।। यमं ह यज्ञो
गच्छति, अग्निदूतो अरंकृतः ।। ऋ०१०.१४.१३
इसके बाद अन्त्येष्टि संस्कार करने वाला दक्षिण
दिशा को मुख करके बैठे ।।
पवित्री धारण करें फिर हाथ में यव-अक्षत, पुष्प, जल, कुश लेकर संस्कार का संकल्प करें:-
पवित्री धारण करें फिर हाथ में यव-अक्षत, पुष्प, जल, कुश लेकर संस्कार का संकल्प करें:-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य
विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे,
वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते,
.......... क्षेत्रे, .......... विक्रमाब्दे .......... संवत्सरे .......... मासानां
मासोत्तमेमासे .......... मासे .......... पक्षे .......... तिथौ .......... वासरे
.......... गोत्रोत्पन्नः .................नामाऽहं (मृतक का नाम) प्रेतस्य प्रेतत्त्व-
निवृत्त्या उत्तम लोकप्राप्त्यर्थं आर्ध्वदेहिकं करिष्ये ।।
संकल्प के बाद प्रथम पिण्डदान करें (मन्त्र आगे
है) फिर शव उठाकर बाहर शव शय्या (ठठरी) तक लाएँ ।।
भावना करें कि यह यात्रा सभी को करनी है, इसलिए अपने कर्मों को, करने योग्य कर्मों की तुलना में तौलने रहें ।।
मन्त्र इस प्रकार है:-
भावना करें कि यह यात्रा सभी को करनी है, इसलिए अपने कर्मों को, करने योग्य कर्मों की तुलना में तौलने रहें ।।
मन्त्र इस प्रकार है:-
ॐ वायुरनिलममृतमथेदं, भस्मान्त शरीरम् ।। ॐक्रतो
स्मर कृतस्मर, क्रतो स्मर कृतंस्मर ॥ ईश०१७
शय्या पर शव लिटाने के बाद उसे बाँधे सज्जित करें
और दूसरा पिण्ड अर्पित करें ।।
अब सभी पुष्पाञ्जलि दें ।।
हाथ में पुष्प लेकर स्वस्तिवाचन बोलें ।।
अब सभी पुष्पाञ्जलि दें ।।
हाथ में पुष्प लेकर स्वस्तिवाचन बोलें ।।
भावना करें- मृतक की सद्गति के लिए तथा स्वयं सद्गति
की पात्रता पाने योग्य कर्म करने की प्रबल आकांक्षा व्यक्त करते हुए सूक्ष्म जगत् की
दिव्य शक्ति का सहयोग भरा वातावरण निर्मित कर रहे हैं ।।
स्वस्तिवाचन के बाद पुनः ॐ क्रतो स्मर..... मन्त्र बोलते हुए पुष्प अर्पित करें ।।:
स्वस्तिवाचन के बाद पुनः ॐ क्रतो स्मर..... मन्त्र बोलते हुए पुष्प अर्पित करें ।।:
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ॥ईश०१७
तत्पश्चात ॐ अग्ने नय सुपथा राये.... मन्त्र बोलते
हुए शव यात्रा प्रारम्भ की जाए ।।:
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि
विद्वान ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं
विधेम ||
- यजुर्वेद ४०, १८
हे प्रकाशस्वरूप, तेजस्वी ईश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण
कर्मो को जानने वाले है, इसलिए ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए हमको अच्छे मार्ग से चलाइये
|
हमको उलटे मार्ग पर चलनेरूप पाप से दूर कर दीजिये, हम आपको बार बार नमस्कार करते है |
हमको उलटे मार्ग पर चलनेरूप पाप से दूर कर दीजिये, हम आपको बार बार नमस्कार करते है |
पिण्डदान
दिशा एवं प्रेरणा-
अन्त्येष्टि संस्कार के साथ पाँच पिण्डदान किये
जाते हैं, यह एक कठोर सत्य को मान्यता देना है जीव चेतना शरीर से बँधी नहीं है, उसे
सन्तुष्ट करने के लिए शरीरगत संकीर्ण मोह से ऊपर उठना आवश्यक है ।।
जीवात्मा की शान्ति के लिए व्यापक जीव चेतना को तुष्ट करने के लिए मृतक के हिस्से के साधनों को अर्पित किया जाता है ।।
पिण्डदान इसी महान् परिपाटी के निर्वाह की प्रतीकात्मक प्रक्रिया है ।।
जीवात्मा की शान्ति के लिए व्यापक जीव चेतना को तुष्ट करने के लिए मृतक के हिस्से के साधनों को अर्पित किया जाता है ।।
पिण्डदान इसी महान् परिपाटी के निर्वाह की प्रतीकात्मक प्रक्रिया है ।।
क्रिया और भावना-
एक- एक पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए ।।
उस पर पुष्प, कुश, जल, यव, तिलाखत डालकर मन्त्र समाप्ति पर अँगूठे की ओर से (पितृ तीर्थ मुद्रा से) पिण्ड निर्धारित स्थान पर चढ़ाया जाए ।।
भावना करें कि जीवात्मा का हित- संतोष शरीर तक ही सीमित नहीं, इसके बाद भी है, उसी व्यापक हित और सन्तोष के लिए प्रयास किया जा रहा है ।।
उस पर पुष्प, कुश, जल, यव, तिलाखत डालकर मन्त्र समाप्ति पर अँगूठे की ओर से (पितृ तीर्थ मुद्रा से) पिण्ड निर्धारित स्थान पर चढ़ाया जाए ।।
भावना करें कि जीवात्मा का हित- संतोष शरीर तक ही सीमित नहीं, इसके बाद भी है, उसी व्यापक हित और सन्तोष के लिए प्रयास किया जा रहा है ।।
प्रथम पिण्ड घर के अन्दर शव संस्कार करके संकल्प
के बाद दिया जाए ।।
पिण्ड पेडू (कटि प्रदेश) पर रखा जाए ।।:
पिण्ड पेडू (कटि प्रदेश) पर रखा जाए ।।:
.................नामाऽहं....(मृतकनाम).....मृतिस्थाने
शवनिमित्तको ब्रह्मदैवतो वा, एष ते पिण्डो, मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।।
दूसरा पिण्ड बाहर शव शय्या (ठठरी) पर शव स्थापना
के बाद दिया जाए ।। पिण्ड पेट पर रखा जाए ।।:
.....नामाऽहं....(मृतकनाम)......द्वारदेश, पन्ना
निमित्तको, विष्णुदैवतो वा, एष ते पिण्डो,मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।।
तीसरा पिण्ड मार्ग मे चत्वर (चौराहा) स्थल पर दिया
जाए ।। पिण्ड पेट और वक्ष की सन्धि पर रखा जाए ।।:
.....नामाऽहं ......(मृतकनाम).....चत्वरस्थाने
खेचरनिमित्तक एष ते पिण्डो, मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।।
चौथा पिण्ड श्मशान पर शव रखकर छाती पर अर्पित करें
।।:
.....नामाऽहं.....(मृतकनाम) श्मशानस्थाने विश्रान्तिनिमित्तको,
भूतनाम्ना रुद्रदैवतो वा एष ते पिण्डो मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ।।
पाँचवाँ पिण्ड चितारोहण के बाद किया जाए ।। पिण्ड
सिर पर रखें ।।:
.....नामाऽहं.....(मृतकनाम)......चितास्थाने वायु
निमित्तको यम दैवतो वा एष ते पिण्डो मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ।।
भूमिसंस्कार
दिशा एवं प्रेरणा-
श्मशान घाट पर पहुँचकर शव उपयुक्त स्थान पर रखें
और चौथा पिण्ड दें, साथ ही चिता सजाने के लिए स्थान झाड़- बुहार कर साफ करें, जल से
सिंचन करें, गोबर से लीपें, उसे यज्ञ वेदी की तरह स्वच्छ और सुरुचिपूर्ण बनाएँ ।।
एक टोली पहले से पहुँचकर कार्य सम्पन्न करके रखें, चिता सजाने के पूर्व मन्त्रों से उपचार किया जाए ।।
धरती माता के ऋण को याद रखा जाए ।।
उसी की गोद से उठे थे, उसी में सोना है, उसे बदनाम करने वाले आचरण हमसे न बन पड़ें। धरती माँ से श्रेष्ठता के संस्कार माँगते रहें ।।
श्मशान भूमि- जो जीवन को नया मोड़ देती है, जहाँ सिद्धियाँ निवास करती हैं, उसे प्रणाम किया जाए, पवित्र बनाकर प्रयुक्त किया जाए ।।
एक टोली पहले से पहुँचकर कार्य सम्पन्न करके रखें, चिता सजाने के पूर्व मन्त्रों से उपचार किया जाए ।।
धरती माता के ऋण को याद रखा जाए ।।
उसी की गोद से उठे थे, उसी में सोना है, उसे बदनाम करने वाले आचरण हमसे न बन पड़ें। धरती माँ से श्रेष्ठता के संस्कार माँगते रहें ।।
श्मशान भूमि- जो जीवन को नया मोड़ देती है, जहाँ सिद्धियाँ निवास करती हैं, उसे प्रणाम किया जाए, पवित्र बनाकर प्रयुक्त किया जाए ।।
क्रिया ओर भावना-
तैयार भूमि के पास अन्त्येष्टि करने वाला व्यक्ति
जाए, उसकी परिक्रमा हाथ जोड़कर करे तथा उसे नमन करे ।।
भावना करे कि यह सिद्धिदायिनी भूमि मृतात्मा को वांछित उपलब्धियाँ देने वाली सिद्ध हो ।।
मन्त्र इस प्रकार है:-
भावना करे कि यह सिद्धिदायिनी भूमि मृतात्मा को वांछित उपलब्धियाँ देने वाली सिद्ध हो ।।
मन्त्र इस प्रकार है:-
ॐ देवस्य त्वा सवितुः, प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां,
पूष्णो हस्ताभ्याम् ।। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये, दधसामि बृहस्पतेष्ट्वा, साम्राज्येनाभिषिंचाम्यसौ॥-
९.३०
भूमि सिंचन- पूजनम्- अब जल पात्र लेकर मन्त्र के
साथ कुशाओं से भूमि का सिंचन करें ।।
भावना करे कि इस यज्ञ भूमि को मन्त्र शक्ति से पवित्र किया जा रहा है:-
भावना करे कि इस यज्ञ भूमि को मन्त्र शक्ति से पवित्र किया जा रहा है:-
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो, मणिवालस्तऽआश्विनाः,श्येतः
श्येताक्षोऽरुणस्ते, रुद्राय पशुपतये कर्णा, यामाऽअवलिप्ता रौद्रा, नभोरूपाः पार्जन्याः॥
-२४.३
ॐ कार लेखन:
अगले मन्त्र के साथ मध्यमा अँगुली से भूमि पर ॐलिखें,
पूजित करें ।। भावना करें कि भूमि के दिव्य संस्कारों को उभारा बनाया जा रहा है:-
ॐ ओमासश्चर्षणीधृता, विश्वे देवासऽआगत ।। दाश्वासो
दाशुषः सुतम् ।। उपयामगृहीतोऽसि, विश्वेभ्यस्त्वा, देवेभ्यऽएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा
देवेभ्यः॥ -७.३३
मर्यादाकरण (समिधारोपण)
यज्ञ- कुण्ड या वेदी के चारों ओर मेखलाएँ बनाई
जाती हैं, उस आवश्यकता की पूर्ति चार बड़ी- बड़ी लकड़ियाँ चारों दिशाओं में स्थापित
करके की जाती है ।।
ये लकड़ियाँ चिता के चारों छोरों पर उसकी सीमा बनाने वाली होनी चाहिए ।।
शेष लकड़ियाँचिता के चारों छोरों पर उसकी सीमा बनाने वाली होनी चाहिए । शेष लकड़ियाँ इन चारों के भीतर ही रखी जाती हैं ।।
दाह क्रिया करने वाला वरूक्ति समिधाओं को स्थापित करे ।।
ये लकड़ियाँ चिता के चारों छोरों पर उसकी सीमा बनाने वाली होनी चाहिए ।।
शेष लकड़ियाँचिता के चारों छोरों पर उसकी सीमा बनाने वाली होनी चाहिए । शेष लकड़ियाँ इन चारों के भीतर ही रखी जाती हैं ।।
दाह क्रिया करने वाला वरूक्ति समिधाओं को स्थापित करे ।।
पहली समिधा (पूर्व दिशा में)
दिशा एवं प्रेरणा-
जीवन चारों दिशाओं में मर्यादित है ।।
व्यक्ति की हर दिशा में मर्यादा है, उसे उसी घेरे में, उसी दायरे में रहना चाहिए ।।
मर्यादाओं का उल्लंघन कर उच्छृंखल नही बनना चाहिए ।।
यह निर्देश मृत शरीर में चारों ओर चार समिधाएँ स्थापित करके किया जाता है ।।
पहली मर्यादा धन सम्बन्धी है, धन उसे उपार्जित तो करना चाहिए, पर अनीतिपूर्वक नहीं ।।
साथ ही इतना अधिक भी नहीं, जिससे समाज में असमानता, ईष्या तथा विलासिता उत्पन्न हो ।।
शरीर रक्षा, कुटुम्ब पालन आदि कार्यों के लिए आजीविका उपार्जन आवश्यक है, पर उसकी उपयोगिता, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही समझी जाए ।।
ऐसा न हो कि संग्रह का लालच बढ़े और उसे गर्व- गौरव का विषय बना लिया जाए ।।
धनी बनने की इच्छा यदि महत्वाकांक्षा का रूप धारण कर ले, तो मनुष्य जीवन जिस प्रयोजन के लिए मिला है, उसके लिए न तो अवकाश मिलेगा, न इच्छा ही रहेगी ।।
इसलिए एक लकड़ी पूर्व दिशा में धन की आकांक्षा सीमित रखने के लिए रखी जाती है ।।
व्यक्ति की हर दिशा में मर्यादा है, उसे उसी घेरे में, उसी दायरे में रहना चाहिए ।।
मर्यादाओं का उल्लंघन कर उच्छृंखल नही बनना चाहिए ।।
यह निर्देश मृत शरीर में चारों ओर चार समिधाएँ स्थापित करके किया जाता है ।।
पहली मर्यादा धन सम्बन्धी है, धन उसे उपार्जित तो करना चाहिए, पर अनीतिपूर्वक नहीं ।।
साथ ही इतना अधिक भी नहीं, जिससे समाज में असमानता, ईष्या तथा विलासिता उत्पन्न हो ।।
शरीर रक्षा, कुटुम्ब पालन आदि कार्यों के लिए आजीविका उपार्जन आवश्यक है, पर उसकी उपयोगिता, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही समझी जाए ।।
ऐसा न हो कि संग्रह का लालच बढ़े और उसे गर्व- गौरव का विषय बना लिया जाए ।।
धनी बनने की इच्छा यदि महत्वाकांक्षा का रूप धारण कर ले, तो मनुष्य जीवन जिस प्रयोजन के लिए मिला है, उसके लिए न तो अवकाश मिलेगा, न इच्छा ही रहेगी ।।
इसलिए एक लकड़ी पूर्व दिशा में धन की आकांक्षा सीमित रखने के लिए रखी जाती है ।।
क्रिया और भावना-
मंत्रोच्चार के साथ पूर्व दिशा में समिधा स्थापित
करें ।।
सभी उपस्थित जन भावना करें कि धन- साधनों के उपयोग की मर्यादा स्वीकार करते हैं ।।
मृतक से उस दिशा में कुछ भूलें हुई हों, तो उसके हितैषी के नाते अपने साधनों के एक अंश को सत्कार्य में लगाकर, उसका पुण्य समिधा के साथ स्थापित करते हैं, मृतात्मा की सद्गति की कामना करते हैं ।।
इसका मन्त्र इस प्रकार है:-
सभी उपस्थित जन भावना करें कि धन- साधनों के उपयोग की मर्यादा स्वीकार करते हैं ।।
मृतक से उस दिशा में कुछ भूलें हुई हों, तो उसके हितैषी के नाते अपने साधनों के एक अंश को सत्कार्य में लगाकर, उसका पुण्य समिधा के साथ स्थापित करते हैं, मृतात्मा की सद्गति की कामना करते हैं ।।
इसका मन्त्र इस प्रकार है:-
ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो, रक्षितादित्या इषवः
।। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो, रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो, नमऽयेभ्यो अस्तु ।। यो३स्मान्द्वेष्टि
यं वयं, द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥ -अथर्व०३.२७.१
दूसरी समिधा (दक्षिण दिशा में)
शिक्षण एवं प्रेरणा-
दूसरी समिधा काम सेवन सम्बन्धी मर्यादा का पालन
करने की है ।।
वासना की आग ऐसी है, जिसमें भोग का ईंधन जितना ही डाला जाएगा, वह उतनी ही भड़कती जाएगी, इसलिए मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य और आत्मबल तीनों ही दृष्टियों से काम सेवन को जितना अधिक मर्यादित किया जा सके, उतना ही उत्तम है ।।
ब्रह्मचर्य पालन की आवश्यकता व्यक्ति शरीर, मन और आत्मा तीनों से ही दुर्बल बनता है ।।
नारी की शरीर रचना भी अन्य जीव- जन्तुओं की तरह ही है, जो यदाकदा ही काम सेवन के दबाव को सहन कर सकती है ।।
सन्तानोत्पादन में नारी की शक्ति को भारी क्षति पहुँचती है ।।
बढ़ती हुई जनसंख्या, खाद्य संकट, बेकारी आदि अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ समाज के लिए उत्पन्न करती है ।।
गृहस्थ का आर्थिक ढाँचा भी बढ़ती हुई सन्तान से चरमरा जाता है ।।
इसलिए ब्रह्मचर्य पालन हर दृष्टि से आवश्यक है ।।
वासना की आग ऐसी है, जिसमें भोग का ईंधन जितना ही डाला जाएगा, वह उतनी ही भड़कती जाएगी, इसलिए मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य और आत्मबल तीनों ही दृष्टियों से काम सेवन को जितना अधिक मर्यादित किया जा सके, उतना ही उत्तम है ।।
ब्रह्मचर्य पालन की आवश्यकता व्यक्ति शरीर, मन और आत्मा तीनों से ही दुर्बल बनता है ।।
नारी की शरीर रचना भी अन्य जीव- जन्तुओं की तरह ही है, जो यदाकदा ही काम सेवन के दबाव को सहन कर सकती है ।।
सन्तानोत्पादन में नारी की शक्ति को भारी क्षति पहुँचती है ।।
बढ़ती हुई जनसंख्या, खाद्य संकट, बेकारी आदि अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ समाज के लिए उत्पन्न करती है ।।
गृहस्थ का आर्थिक ढाँचा भी बढ़ती हुई सन्तान से चरमरा जाता है ।।
इसलिए ब्रह्मचर्य पालन हर दृष्टि से आवश्यक है ।।
क्रिया और भावना-
मंत्रोच्चार के साथ दक्षिण दिशा में समिधा स्थापित
की जाए ।।
सभी भावना करें कि कामवासना की मर्यादा का सिद्धान्त अंगीकार करते हैं ।।
मृतक से इस दिशा में कुछ भूलें हुई हों, तो उसके परिजन के नाते, उनके परिष्कार के लिए तपश्चर्यापूर्वक परिष्कार करेंगे ।।
न्यूनतम तीन दिन तक दृष्टि और आचरण की पवित्रता बनाये रखने का तप करते हुए मृतात्मा की सद्गति की प्रार्थना करेंगे ।।
यह पुण्य दूसरी समिधा के साथ स्थापित करते हैं ।। मन्त्र इस प्रकार है:-
सभी भावना करें कि कामवासना की मर्यादा का सिद्धान्त अंगीकार करते हैं ।।
मृतक से इस दिशा में कुछ भूलें हुई हों, तो उसके परिजन के नाते, उनके परिष्कार के लिए तपश्चर्यापूर्वक परिष्कार करेंगे ।।
न्यूनतम तीन दिन तक दृष्टि और आचरण की पवित्रता बनाये रखने का तप करते हुए मृतात्मा की सद्गति की प्रार्थना करेंगे ।।
यह पुण्य दूसरी समिधा के साथ स्थापित करते हैं ।। मन्त्र इस प्रकार है:-
ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी, रक्षिता
पितरऽ इषवः ।। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो, रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो, नमऽएभ्यो अस्तु ।।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं, द्विष्मस्तं तो जम्भे दध्मः ।। -अथर्व० ३.२७.२
तीसरी समिधा (पश्चिम दिशा में)
दिशा एवं प्रेरणा-
तीसरी समिधा यश- मर्यादा की है ।।
लोक- लाज के कारण बुरे कार्यों से बचे रहने और सत्कर्म करने के फलस्वरूप लोक- सम्मान का सुख मिलने की इच्छा एक सीमा तक उचित है, पर जब उच्छृंखल हो उठती है, तो अवांछनीय उपाय सोचकर उच्च पदवी पाने की लिप्सा उठ खड़ी होती है, तब सम्मान के वास्ते अधिकारियों को एक और धकेल कर उनका स्थान स्वयं ग्रहण करने की दुरभिसन्धि की जाने लगती है ।।
आज पदलोलुप व्यक्ति इस प्रकार के पारस्परिक संघर्ष में लगे हुए हैं और जिन संस्थाओं के समर्थक होने का दम भरते हैं, उन्हीं को नष्ट करने में प्रवृत्त हैं ।।
भाषा, जाति, सम्प्रदाय आदि की आड़ लेकर तथाकथित नेता लोग अपना व्यक्तिगत- गौरव बढ़ाने के लिए देश के भाग्य- भविष्य के पृष्ठों पर मनुष्य की नृशंसता का वीभत्स चित्र देखा जा सकता है ।।
चुनावों में करोड़ों रुपया इसी यश लोलुपता के लिए पानी की तरह बहा दिया जाता है, जो यदि किन्हीं रचनात्मक कार्यो में लगता, तो उसका बहुत ही श्रेष्ठ सत्परिणाम होता ।।
फैशन, शृंगार, अमीरी के ठाठ- बाट तथा ढोंग बनाकर वाह- वाही लूटने की इच्छा से ढेरों पैसा नष्ट करते हैं ।।
अहंकार का पोषण करने वाले यह सभी प्रपंच व्यक्ति तथा समाज के लिए हानिकारक हैं ।अतएव मनीषियों ने यश- कामना को मर्यादित रखने का निर्देश दिया है ।।
तीसरी मर्यादा इसी की है ।।
लोक- लाज के कारण बुरे कार्यों से बचे रहने और सत्कर्म करने के फलस्वरूप लोक- सम्मान का सुख मिलने की इच्छा एक सीमा तक उचित है, पर जब उच्छृंखल हो उठती है, तो अवांछनीय उपाय सोचकर उच्च पदवी पाने की लिप्सा उठ खड़ी होती है, तब सम्मान के वास्ते अधिकारियों को एक और धकेल कर उनका स्थान स्वयं ग्रहण करने की दुरभिसन्धि की जाने लगती है ।।
आज पदलोलुप व्यक्ति इस प्रकार के पारस्परिक संघर्ष में लगे हुए हैं और जिन संस्थाओं के समर्थक होने का दम भरते हैं, उन्हीं को नष्ट करने में प्रवृत्त हैं ।।
भाषा, जाति, सम्प्रदाय आदि की आड़ लेकर तथाकथित नेता लोग अपना व्यक्तिगत- गौरव बढ़ाने के लिए देश के भाग्य- भविष्य के पृष्ठों पर मनुष्य की नृशंसता का वीभत्स चित्र देखा जा सकता है ।।
चुनावों में करोड़ों रुपया इसी यश लोलुपता के लिए पानी की तरह बहा दिया जाता है, जो यदि किन्हीं रचनात्मक कार्यो में लगता, तो उसका बहुत ही श्रेष्ठ सत्परिणाम होता ।।
फैशन, शृंगार, अमीरी के ठाठ- बाट तथा ढोंग बनाकर वाह- वाही लूटने की इच्छा से ढेरों पैसा नष्ट करते हैं ।।
अहंकार का पोषण करने वाले यह सभी प्रपंच व्यक्ति तथा समाज के लिए हानिकारक हैं ।अतएव मनीषियों ने यश- कामना को मर्यादित रखने का निर्देश दिया है ।।
तीसरी मर्यादा इसी की है ।।
क्रिया एवं भावना-
तीसरी समिधा मंत्रोच्चार करते हुए पश्चिम दिशा
में समर्पित करें ।।
सभी जन लोकैषणा को सीमित रखने का महत्त्व स्वीकार करें ।।
भावना करें कि इस दिशा में मृतक से कोई भूलें हुई हों, तो उसके ही हितचिन्तक होने के नाते उसके परिष्कार का प्रयास करेंगे ।।
बिना यश की कामना किये तीन घण्टे जन- जन तक सद्विचार- सत्साहित्य पहुँचायेंगे ।।
उस पुण्य को तीसरी समिधा के साथ स्थापित करते हैं ।।
मन्त्र इस प्रकार है:-
सभी जन लोकैषणा को सीमित रखने का महत्त्व स्वीकार करें ।।
भावना करें कि इस दिशा में मृतक से कोई भूलें हुई हों, तो उसके ही हितचिन्तक होने के नाते उसके परिष्कार का प्रयास करेंगे ।।
बिना यश की कामना किये तीन घण्टे जन- जन तक सद्विचार- सत्साहित्य पहुँचायेंगे ।।
उस पुण्य को तीसरी समिधा के साथ स्थापित करते हैं ।।
मन्त्र इस प्रकार है:-
ॐ प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः, पृदाकू रक्षितान्नमिषवः
।। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो,रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो, नमऽएभ्यो नमो, अस्तु ।। यो३ स्मान्द्वेष्टि
यं वयं, द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। -अथर्व० ३.२७.३
चौथी समिधा (उत्तर दिशा में)
दिशा एवं प्रेरणा-
चौथी समिधा द्वेष को मर्यादित रखने की है ।।
संसार में विभिन्न प्रवृत्ति के लोग रहते हैं ।।
उनके विचार एवं कार्य अपनी रुचि एवं मान्यता से मेल नहीं खाते, तो बहुधा झगड़े की सूरत बन जाती है ।।
अपने से प्रतिकूल को पसन्द नहीं किया जाता है और उसे नष्ट करने की इच्छा होती है ।।
यह क्रोध ही क्लेश और द्वेष का कारण बनता है ।।
यह मतभिन्नता ही संसार में हो रहे लड़ाई- झगड़ों की जड़ है ।।
असहिष्णुता के कारण छोटी- छोटी बातों पर लोग एक दूसरे की जान के ग्राहक व भयंकर शत्रु बन जाते हैं ।।
इस असहिष्णुता की प्रबलता के कारण लोग दस में से नौ बातों की सहमति, समानता और एकता को नहीं देखते, वरन् जो शेष एक की भावना थी, उसी को आगे रखकर दुर्भाव उत्पन्न करते हैं ।।
संसार में विभिन्न प्रवृत्ति के लोग रहते हैं ।।
उनके विचार एवं कार्य अपनी रुचि एवं मान्यता से मेल नहीं खाते, तो बहुधा झगड़े की सूरत बन जाती है ।।
अपने से प्रतिकूल को पसन्द नहीं किया जाता है और उसे नष्ट करने की इच्छा होती है ।।
यह क्रोध ही क्लेश और द्वेष का कारण बनता है ।।
यह मतभिन्नता ही संसार में हो रहे लड़ाई- झगड़ों की जड़ है ।।
असहिष्णुता के कारण छोटी- छोटी बातों पर लोग एक दूसरे की जान के ग्राहक व भयंकर शत्रु बन जाते हैं ।।
इस असहिष्णुता की प्रबलता के कारण लोग दस में से नौ बातों की सहमति, समानता और एकता को नहीं देखते, वरन् जो शेष एक की भावना थी, उसी को आगे रखकर दुर्भाव उत्पन्न करते हैं ।।
असहिष्णुता को, द्वेष को मर्यादित रखने की मानवीय
परम्परा को निबाहने के लिए मनुष्य संयम बरते, इसकी शिक्षा उपस्थित लोगों को देने के
लिए मानव, जीवन के मर्यादा- विज्ञान को समझने के लिए चौथी बड़ी समिधा उत्तर दिशा में
स्थापित की जाती है ।।
क्रिया एवं भावना-
चौथी समिधा उत्तर दिशा में मन्त्र के साथ रखी जाए
।।
सभी भावना करें कि द्वेष- दुर्भाव पर अंकुश रखने का पाठ हृदयंगम कर रहे हैं ।।
मृतक से इस प्रकरण में भूलें हुई हों, तो उनके शमन के लिए अपना उत्तरदायित्व निश्चित करते हैं ।।
ऐसे व्यक्ति जिनसे अपनी पटती नहीं, उनके द्वारा किये जाने वाले किसी श्रेष्ठ कार्य में स्वयं खुले मन से सहयोग देंगे ।।
इस तप- पुण्य को समिधा के साथ स्थापित करते हैं ।।:
सभी भावना करें कि द्वेष- दुर्भाव पर अंकुश रखने का पाठ हृदयंगम कर रहे हैं ।।
मृतक से इस प्रकरण में भूलें हुई हों, तो उनके शमन के लिए अपना उत्तरदायित्व निश्चित करते हैं ।।
ऐसे व्यक्ति जिनसे अपनी पटती नहीं, उनके द्वारा किये जाने वाले किसी श्रेष्ठ कार्य में स्वयं खुले मन से सहयोग देंगे ।।
इस तप- पुण्य को समिधा के साथ स्थापित करते हैं ।।:
ॐ उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः, स्वजो रक्षिताशनिरिषवः
।। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो, रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो, नमऽएभ्यो नमो अस्तु ।। यो३ स्मान्द्वेष्टि
यं वयं, द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। -अथर्व० ३.२७.४
चितारोहण मर्यादा की समिधाएँ स्थापित करने के बाद
अनुभवी व्यक्ति चिता सजाएँ ।।
चिता चूँकि एक प्रकार का यज्ञ प्रक्रिया है, इसलिए उसमें वे ही लकड़ियाँ काम आती हैं, जो आम तौर से यज्ञ कार्यों में प्रयुक्त होती हैं ।।
वट, पीपल, गूलर, ढाक, आम, शमी आदि पवित्र काष्ठों की ही समिधाएँ यज्ञ में काम आती हैं, यथाशक्ति वे ही मृतक शरीर की अन्त्येष्टि में काम आनी चाहिए ।।
अगर, तगर, देवदारु, चन्दन आदि के सुगन्धित काष्ठ मिले सकें, तो उन्हें भी चिता में सम्मिलित कर लेना चाहिए ।।
चिता चूँकि एक प्रकार का यज्ञ प्रक्रिया है, इसलिए उसमें वे ही लकड़ियाँ काम आती हैं, जो आम तौर से यज्ञ कार्यों में प्रयुक्त होती हैं ।।
वट, पीपल, गूलर, ढाक, आम, शमी आदि पवित्र काष्ठों की ही समिधाएँ यज्ञ में काम आती हैं, यथाशक्ति वे ही मृतक शरीर की अन्त्येष्टि में काम आनी चाहिए ।।
अगर, तगर, देवदारु, चन्दन आदि के सुगन्धित काष्ठ मिले सकें, तो उन्हें भी चिता में सम्मिलित कर लेना चाहिए ।।
ठठरी पर रखे हुए मृत शरीर को उठा कर चिता पर सुलाया
जाए, तब सम्मिलित स्वर से संस्कार कर्त्ता;
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि
विद्वान ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं
विधेम ||
- यजुर्वेद ४०, १८
हे प्रकाशस्वरूप, तेजस्वी ईश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण
कर्मो को जानने वाले है, इसलिए ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए हमको अच्छे मार्ग से चलाइये
| हमको उलटे मार्ग पर चलनेरूप पाप से दूर कर दीजिये, हम आपको बार बार नमस्कार करते
है |
मन्त्र में अग्निदेव से जीवन को उस ओर ले चलने
की प्रार्थना की गयी है, जिस ओर सज्जन लोग प्रयाण करते हैं ।।
ज्ञान, प्रकाश, तेज, संयम, पुरुषार्थ जैसे गुणों को अग्नि का प्रतिनिधि माना गया है ।।
इनका जो भी आश्रय लेंगे, वे उसी प्रकार ऊपर उठेंगे, जिस प्रकार अग्नि में जलाये हुए शरीर के अणु- कण वायुभूत होकर ऊपर आकाश में उड़ते चले जाते हैं ।।
ज्ञान, प्रकाश, तेज, संयम, पुरुषार्थ जैसे गुणों को अग्नि का प्रतिनिधि माना गया है ।।
इनका जो भी आश्रय लेंगे, वे उसी प्रकार ऊपर उठेंगे, जिस प्रकार अग्नि में जलाये हुए शरीर के अणु- कण वायुभूत होकर ऊपर आकाश में उड़ते चले जाते हैं ।।
चितारोहण के बाद पूर्व निर्धारित मन्त्र से पाँचवाँ
पिण्ड दिया जाए, फिर शव के ऊपर भी लकड़ियाँ जमा दी जाएँ ।।
शरीर यज्ञ आरम्भ
अग्नि स्थापना-
कुशाओं के पुन्ज में अंगार या जलते कोयले रखकर
उसे हवा में इधर- उधर हिलाया जाए, अग्नि प्रज्वलित हो उठेगी ।।
इस अग्नि समेत एक परिक्रमा मृतक की करके उसे उसके मुख के पास अथवा पूर्व निश्चित ऐसे स्थान पर रख दिया जाए, जहाँ लकड़ियों में आसानी से अग्नि प्रविष्ट हो सके ।।
ऐसा स्थान पहले से ही वायु के लिए खाली और पतली, छोटी, जल्दी आग पकड़ने वाली समिधाओं से बनाया गया हो । अग्नि स्थापन के समय:
इस अग्नि समेत एक परिक्रमा मृतक की करके उसे उसके मुख के पास अथवा पूर्व निश्चित ऐसे स्थान पर रख दिया जाए, जहाँ लकड़ियों में आसानी से अग्नि प्रविष्ट हो सके ।।
ऐसा स्थान पहले से ही वायु के लिए खाली और पतली, छोटी, जल्दी आग पकड़ने वाली समिधाओं से बनाया गया हो । अग्नि स्थापन के समय:
ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा
।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे
॥
मन्त्र का पाठ किया जाए फिर:
ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते
सं सृजेथामयं च ।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च
सीदत ॥
मन्त्र के साथ अग्नि तीव्र करने के लिए आवश्यकतानुसार
राल का चुरा आदि झोंकना चाहिए, हवा करनी चाहिए ।।
घृताहुति-
अग्नि प्रज्वलित हो जाए, तब घी की सात आहुतियाँ
दी जाएँ ।। इस कार्य के लिए लम्बी डण्डी का चम्मच प्रयोग किया जाए ।।:
१- ॐ प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये इदं न मम॥
१८.२८
२- ॐ इन्द्राय स्वाहा। इदं इन्द्राय इदं न मम॥
३- ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥
४- ॐ सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदं न मम॥ -२२.२७
५- ॐ भूः स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥
६- ॐ भुवः स्वाहा। इदं वायवे इदं न मम॥
७- ॐ स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय इदं न मम॥ -गो.गृ.सू.
१.८.१५
इत्यादि मन्त्रों से सात घृत आहुतियाँ वही व्यक्ति
करे, जिसने अग्नि प्रवेश कराया हो ।।
यह मृतक का पुत्र या निकटतम सम्बन्धी होता है ।।
सामान्याहुति- घृताहुति के बाद सभी लोग सुगन्धित हवन सामग्री से गायत्री मन्त्र बोलते हुए सात आहुतियाँ समर्पित करें, इसके बाद शरीर यज्ञ की विशेष आहुतियाँ डाली जाती हैं ।।
यह मृतक का पुत्र या निकटतम सम्बन्धी होता है ।।
सामान्याहुति- घृताहुति के बाद सभी लोग सुगन्धित हवन सामग्री से गायत्री मन्त्र बोलते हुए सात आहुतियाँ समर्पित करें, इसके बाद शरीर यज्ञ की विशेष आहुतियाँ डाली जाती हैं ।।
विशेष आहुति
शिक्षा एवं प्रेरणा-
शरीर यज्ञ का प्रधान मन्त्र:
आयुर्यज्ञेन कल्पतां, प्राणो यज्ञेन कल्पतां, चक्षुर्यज्ञेन
कल्पतां,
श्रोत्रंयज्ञेन कल्पतां, वाग् यज्ञेन कल्पतां,
मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्।। -यजु० १८/२९
हमें इस तथ्य को हृदयंगम करने और व्यावहारिक जीवन
में समाविष्ट करने का निर्देश करता है ।।
मन्त्र में निर्देश है कि मानवीय आयुष्य यज्ञ के लिए हो, वह जब तक जिए परमार्थ के लिए जिए, विराट् ब्रह्म की पूजा करता रहे ।।
मैं अपने लिए नहीं समस्त समाज के लिए जीता हूँ- यही सोचता रहे ।।
प्राण चक्षु, श्रोत्र, वाणी, मन, आत्मा आदि यज्ञ के लिए ही समर्पित रहें ।।
मन्त्र में निर्देश है कि मानवीय आयुष्य यज्ञ के लिए हो, वह जब तक जिए परमार्थ के लिए जिए, विराट् ब्रह्म की पूजा करता रहे ।।
मैं अपने लिए नहीं समस्त समाज के लिए जीता हूँ- यही सोचता रहे ।।
प्राण चक्षु, श्रोत्र, वाणी, मन, आत्मा आदि यज्ञ के लिए ही समर्पित रहें ।।
प्राण यज्ञ के लिए हो ।।
साहस, शक्ति, क्षमता, चातुर्य और प्रतिभा का समस्त कोष लोकहित की बात सोचने में, आयोजन करने में तथा प्रवृत्त रहने में खर्च किया जाए ।।
इन्हें ही पाँच प्राण- क्रमशः प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान कहकर सभी की आहुतियाँ दी जाती हैं ।।
चक्षु यज्ञ के लिए हों, अर्थात् जो कुछ देखें सदुद्देश्य के लिए देखें ।।
अश्लीलता की विकार भरी दूषित दृष्टि से, भिन्न लिंग वाले नर या नारी को न देखें ।।
पवित्र और प्रेम भरी दृष्टि से हर व्यक्ति और वस्तु को देखें और उसे अधिक सुन्दर- सुविकसित बनाने का प्रयत्न करें ।।
छिद्रान्वेषण न करें, वरन् गुणों को देखें, ढूँढ़े तथा अपनाएँ ।।
सत्साहित्य पढ़ें, प्रेरणाप्रद दृश्यों को देखें ।।
जो दुर्भाव उत्पन्न करें, ऐसे दृश्यों से नेत्रों को बचाये रखें ।।
साहस, शक्ति, क्षमता, चातुर्य और प्रतिभा का समस्त कोष लोकहित की बात सोचने में, आयोजन करने में तथा प्रवृत्त रहने में खर्च किया जाए ।।
इन्हें ही पाँच प्राण- क्रमशः प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान कहकर सभी की आहुतियाँ दी जाती हैं ।।
चक्षु यज्ञ के लिए हों, अर्थात् जो कुछ देखें सदुद्देश्य के लिए देखें ।।
अश्लीलता की विकार भरी दूषित दृष्टि से, भिन्न लिंग वाले नर या नारी को न देखें ।।
पवित्र और प्रेम भरी दृष्टि से हर व्यक्ति और वस्तु को देखें और उसे अधिक सुन्दर- सुविकसित बनाने का प्रयत्न करें ।।
छिद्रान्वेषण न करें, वरन् गुणों को देखें, ढूँढ़े तथा अपनाएँ ।।
सत्साहित्य पढ़ें, प्रेरणाप्रद दृश्यों को देखें ।।
जो दुर्भाव उत्पन्न करें, ऐसे दृश्यों से नेत्रों को बचाये रखें ।।
'श्रोत्र यज्ञ के लिए हों, अर्थात् जो सुनें वह
श्रेयस्कर एवं सद्भाव जाग्रत् करने वाला ही हो ।। ऐसे वचन न सुनें, जो कुमार्ग पर ले
जाते हों ।'
'वाणी यज्ञ के लिए बोलें, अर्थात् मधुर, शिष्ट,
उत्साहवर्धक, श्रेयस्कर वचन कहने का अभ्यास डाला जाए, मतभेद या अप्रिय प्रसंग आने पर
भी वाणी की शालीनता को हाथ से न जाने दिया जाए ।।
दूसरों को कुमार्ग पर ले जाने वाली सलाह, द्वेष एवं रोष उत्पन्न करने वाली निन्दा, चुगली, व्यंग्य, उपहास एवं मर्म भेदन करने वाली वाणी हमारी कदापि न हो ।।
असत्य और निरर्थक भी न बोलें ।।
जिह्वा का संयम सबसे बड़ा तप माना गया है ।।
उसका अर्थ चटोरेपन से बचना ही नहीं, वरन् नपी- तुली सुसंगत एवं श्रेयस्कर वाणी बोलना भी है- ऐसे वाक् संयम को ही मौन कहते हैं ।। ''
दूसरों को कुमार्ग पर ले जाने वाली सलाह, द्वेष एवं रोष उत्पन्न करने वाली निन्दा, चुगली, व्यंग्य, उपहास एवं मर्म भेदन करने वाली वाणी हमारी कदापि न हो ।।
असत्य और निरर्थक भी न बोलें ।।
जिह्वा का संयम सबसे बड़ा तप माना गया है ।।
उसका अर्थ चटोरेपन से बचना ही नहीं, वरन् नपी- तुली सुसंगत एवं श्रेयस्कर वाणी बोलना भी है- ऐसे वाक् संयम को ही मौन कहते हैं ।। ''
'मन को यज्ञ के लिए गतिशील करें ।' मन में अनुचित,
अवांछनीय बातें न आने दें ।।
कुविचारों को मस्तिष्क में स्थान न दें ।।
ऐसी इच्छाएँ न करें, जिनकी पूर्ति के लिए दूसरों को हानि पहुँचाकर अनैतिक रीति से लाभ उठाने की योजना बनानी पड़े ।।
तृष्णा में मन डूबा न रहे ।।
उसमें द्वेष, शोषण, अपहरण एवं अन्याय के लिए कोई स्थान न हो ।।
छल- कपट एवं धोखा देने की इच्छा कभी भी न हो ।।
तो ऐसा निर्मल मन यज्ञ रूप ही कहा जायेगा ।।
कुविचारों को मस्तिष्क में स्थान न दें ।।
ऐसी इच्छाएँ न करें, जिनकी पूर्ति के लिए दूसरों को हानि पहुँचाकर अनैतिक रीति से लाभ उठाने की योजना बनानी पड़े ।।
तृष्णा में मन डूबा न रहे ।।
उसमें द्वेष, शोषण, अपहरण एवं अन्याय के लिए कोई स्थान न हो ।।
छल- कपट एवं धोखा देने की इच्छा कभी भी न हो ।।
तो ऐसा निर्मल मन यज्ञ रूप ही कहा जायेगा ।।
आत्मा यज्ञमय हो ।।
उसमें आस्थाएँ, निष्ठाएँ, भावनाएँ, मान्यताएँ, आकांक्षाएँ जो भी हों, सब आदर्शवादिता, उत्कृष्टता एवं सात्विकता से भरी- पूरी हों ।।
उद्वेग नहीं सन्तोष एवं उल्लास की अन्तःकरण में प्रधानता रहे ।।
शुभ ही अनुभव करें, शुभ ही सोचें और शुभ की ही आशा रखें ।।
आत्मा को शुभ बनाते- बनाते, परिष्कृत करते- करते उसे परमात्मा के रूप में परिणत करने की चेष्टा जारी रहे, तो यह प्रक्रिया आत्मज्ञान कहलायेगी ।।
उसमें आस्थाएँ, निष्ठाएँ, भावनाएँ, मान्यताएँ, आकांक्षाएँ जो भी हों, सब आदर्शवादिता, उत्कृष्टता एवं सात्विकता से भरी- पूरी हों ।।
उद्वेग नहीं सन्तोष एवं उल्लास की अन्तःकरण में प्रधानता रहे ।।
शुभ ही अनुभव करें, शुभ ही सोचें और शुभ की ही आशा रखें ।।
आत्मा को शुभ बनाते- बनाते, परिष्कृत करते- करते उसे परमात्मा के रूप में परिणत करने की चेष्टा जारी रहे, तो यह प्रक्रिया आत्मज्ञान कहलायेगी ।।
'ब्रह्म' यज्ञ के लिए हो ।।
यहाँ ब्रह्म शब्द का प्रयोग विवेक के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।।
हमारे विवेक जाग्रत् रहे, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के जो कषाय- कल्मष उठते रहते हैं और अन्तःकरण में जो विविध विक्षेप उत्पन्न करते रहते हैं, उनको विवेक द्वारा नियन्त्रित किया जाए ।।
आत्म निग्रह का कार्य विवेक द्वारा ही सम्पन्न होता है ।।
इसलिए विवेक की सत्ता इतनी प्रबल रखी जाए कि मनोविकार सिर न उठा सकें और कुमार्ग पर जीवन को घसीट कर न ले जा सकें ।।
यहाँ ब्रह्म शब्द का प्रयोग विवेक के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।।
हमारे विवेक जाग्रत् रहे, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के जो कषाय- कल्मष उठते रहते हैं और अन्तःकरण में जो विविध विक्षेप उत्पन्न करते रहते हैं, उनको विवेक द्वारा नियन्त्रित किया जाए ।।
आत्म निग्रह का कार्य विवेक द्वारा ही सम्पन्न होता है ।।
इसलिए विवेक की सत्ता इतनी प्रबल रखी जाए कि मनोविकार सिर न उठा सकें और कुमार्ग पर जीवन को घसीट कर न ले जा सकें ।।
ज्योति यज्ञ के लिए हो ।।
यहाँ ज्योति शब्द क्रियाशीलता के अर्थ में प्रयुक्त है ।।
हमारी शक्ति कुमार्गगामी न हो, हमारी बुद्धि सत्पथ का परित्याग न करे, हमारी आकांक्षा अनुचित की चाह न करे, हमारी प्रतिभा दूसरों पर अवांछनीय भार या दबाव न डाले ।।
विद्या की दिशा में अधोगामी नहीं, ऊर्ध्वगामी बनें ।।
पतन के लिए नहीं, उत्थान के लिए कदम बढ़े, तो समझना चाहिए कि हमारी ज्योति यज्ञ के लिए प्रयुक्त हो रही है ।।
जिस प्रकार दीपक अपने को जलाकर दूसरों के लिए प्रकाश उत्पन्न करता है, वैसे ही हम भी अपने ज्योतिर्मय व्यक्तित्व से संसार में पुण्य प्रकाश का सृजन अभिवर्धन करते रहें ।।
यहाँ ज्योति शब्द क्रियाशीलता के अर्थ में प्रयुक्त है ।।
हमारी शक्ति कुमार्गगामी न हो, हमारी बुद्धि सत्पथ का परित्याग न करे, हमारी आकांक्षा अनुचित की चाह न करे, हमारी प्रतिभा दूसरों पर अवांछनीय भार या दबाव न डाले ।।
विद्या की दिशा में अधोगामी नहीं, ऊर्ध्वगामी बनें ।।
पतन के लिए नहीं, उत्थान के लिए कदम बढ़े, तो समझना चाहिए कि हमारी ज्योति यज्ञ के लिए प्रयुक्त हो रही है ।।
जिस प्रकार दीपक अपने को जलाकर दूसरों के लिए प्रकाश उत्पन्न करता है, वैसे ही हम भी अपने ज्योतिर्मय व्यक्तित्व से संसार में पुण्य प्रकाश का सृजन अभिवर्धन करते रहें ।।
'स्व' यज्ञ के लिए हो ।।
अपना व्यक्तित्व या अस्तित्व सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने के लिए, सत्यं शिवं सुन्दरम् की महत्ता विकसित करने के लिए हो ।।
हमारा अहं अपना गर्व पूरा करने के लिए न हो, धर्म, सत्य और ईश्वर का गौरव बढ़ाने में नियोजित रहे ।।
अपना व्यक्तित्व या अस्तित्व सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने के लिए, सत्यं शिवं सुन्दरम् की महत्ता विकसित करने के लिए हो ।।
हमारा अहं अपना गर्व पूरा करने के लिए न हो, धर्म, सत्य और ईश्वर का गौरव बढ़ाने में नियोजित रहे ।।
'पृष्ठ' भाग यज्ञ के लिए हो ।।
आगे वाला दिखाई देने वाला हिस्सा, तो लोग आदमियों का सा बना लेते हैं, पर भीतर उसके गन्दगी ही गन्दगी भरी रहती है, इस प्रकार हम अपना वर्तमान तो किसी प्रकार गुजार लेते हैं, पर पीछे का वह पृष्ठ भाग जो मरणोत्तर जीवन से सम्बन्धित है, अँधेरे में ही पड़ा रहता है ।।
इस संसार से विदा होने के पश्चात् हम अपने पीछे कोई महत्त्वपूर्ण स्मृति नहीं छोड़ जाते- यह खेद की बात है ।।
मन्त्र में कहा गया है कि हमारा पृष्ठ भाग पीछे का अदृश्य पहलू भी यज्ञ के लिए प्रयुक्त हो ।।
आगे वाला दिखाई देने वाला हिस्सा, तो लोग आदमियों का सा बना लेते हैं, पर भीतर उसके गन्दगी ही गन्दगी भरी रहती है, इस प्रकार हम अपना वर्तमान तो किसी प्रकार गुजार लेते हैं, पर पीछे का वह पृष्ठ भाग जो मरणोत्तर जीवन से सम्बन्धित है, अँधेरे में ही पड़ा रहता है ।।
इस संसार से विदा होने के पश्चात् हम अपने पीछे कोई महत्त्वपूर्ण स्मृति नहीं छोड़ जाते- यह खेद की बात है ।।
मन्त्र में कहा गया है कि हमारा पृष्ठ भाग पीछे का अदृश्य पहलू भी यज्ञ के लिए प्रयुक्त हो ।।
अन्त में यह यज्ञ भी यज्ञ के लिए हो ।।
इसमें यज्ञीय संस्कृति का चरमोत्कर्ष बतलाया गया है, हम जो भी शुभ कार्य करें, सद्भाव रखें, उनके पीछे किसी प्रकार के लौकिक या पारलौकिक व्यक्तिगत लाभ की इच्छा न हो ।।
यद्यपि स्वभावतः परमार्थ पर चलने वाले को इस लोक और परलोक में सुख- शान्ति का अविरल लाभ मिलता रहे फिर भी इस प्रकार के लाभ की बात सोचकर व्यक्तिगत स्वार्थ की बात न आने दी जाए ।।
शुभ कर्म इसीलिए किये जाएँ कि इन्हीं से मनुष्यता की शोभा है ।।
सत्य और औचित्य की विजय ही ईश्वर की विजय है ।।
धर्म का अभिनन्दन एवं परिपोषण ही मानवोचित कर्तव्य है ।।
इन उदात्त भावनाओं से एवं यज्ञीय परम्परा को गतिमान रखने की भावना से यज्ञ कर्म किये जाएँ ।।
इसमें यज्ञीय संस्कृति का चरमोत्कर्ष बतलाया गया है, हम जो भी शुभ कार्य करें, सद्भाव रखें, उनके पीछे किसी प्रकार के लौकिक या पारलौकिक व्यक्तिगत लाभ की इच्छा न हो ।।
यद्यपि स्वभावतः परमार्थ पर चलने वाले को इस लोक और परलोक में सुख- शान्ति का अविरल लाभ मिलता रहे फिर भी इस प्रकार के लाभ की बात सोचकर व्यक्तिगत स्वार्थ की बात न आने दी जाए ।।
शुभ कर्म इसीलिए किये जाएँ कि इन्हीं से मनुष्यता की शोभा है ।।
सत्य और औचित्य की विजय ही ईश्वर की विजय है ।।
धर्म का अभिनन्दन एवं परिपोषण ही मानवोचित कर्तव्य है ।।
इन उदात्त भावनाओं से एवं यज्ञीय परम्परा को गतिमान रखने की भावना से यज्ञ कर्म किये जाएँ ।।
अन्त में शरीर के प्रत्येक अंश को यज्ञमय बनाने
की प्रेरणा के साथ १६ आहुतियाँ पूर्ण की जाती हैं ।।
सत्रहवीं आहुति शरीरगत पंचतत्त्वों को श्रेष्ठतम दिशा में गति देने की भावना से की जाती है ।।
भावना करते हैं कि चक्षुशक्ति सूर्य की ओर, वायु एवं आत्मतत्त्व द्युलोक की ओर, पृथ्वीतत्त्व धर्मतत्त्व की ओर तथा जलतत्त्व हितकारी औषधियों की ओर उन्मुख हों ।।
सत्रहवीं आहुति शरीरगत पंचतत्त्वों को श्रेष्ठतम दिशा में गति देने की भावना से की जाती है ।।
भावना करते हैं कि चक्षुशक्ति सूर्य की ओर, वायु एवं आत्मतत्त्व द्युलोक की ओर, पृथ्वीतत्त्व धर्मतत्त्व की ओर तथा जलतत्त्व हितकारी औषधियों की ओर उन्मुख हों ।।
क्रिया और भावना-
एक- एक मन्त्र से सम्बन्धित संक्षिप्त प्रेरणा
दी जाए ।।
भावना करें कि मृतक के व्यक्तित्व के सभी अंश यज्ञभूत हो रहे हैं, हमारा व्यक्तित्व यज्ञीय धारा के योग्य बने ।।:
भावना करें कि मृतक के व्यक्तित्व के सभी अंश यज्ञभूत हो रहे हैं, हमारा व्यक्तित्व यज्ञीय धारा के योग्य बने ।।:
१- ॐ आयुर्यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
२- ॐ प्रोणो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
३- ॐ अपानो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
४- ॐ व्यानो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
५- ॐ उदानो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
६- ॐ समानो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
७- ॐ चक्षुर्यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
८- ॐ श्रोत्रं यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
९- ॐ वाग्यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१०- ॐ मनो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
११- ॐ आत्मा यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१२- ॐ ब्रह्म यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१३- ॐ ज्योतिर्यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१४- ॐ स्वर्यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१५- ॐ पृष्ठं यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१६- ॐ यज्ञो यज्ञेन कल्पता स्वाहा ।।
१७- ॐ सूर्यं चक्षुर्गच्छतु, वातमात्मा द्यां च
गच्छ, पृथिवीं च धर्मणा ।। अपो वा गच्छ यदि, तत्र ते हितमोषधीषु, प्रतिष्ठिता शरीरैः
स्वाहा ।। -ऋ० १०.१६.३
सामूहिक जप- प्रार्थना
शरीर यज्ञ के बाद सभी परिजन चिता की ओर मुख करके
शान्त भाव से पंक्तिबद्ध होकर बैठें ।।
परस्पर चर्चा वार्तालाप न करें ।।
आवश्यकता पड़े, तो सम्बन्धित व्यक्ति को इशारे से बुलाकर संक्षिप्त चर्चा कर लें ।।
वातावरण शान्त बनाये रखें ।।
सभी लोग गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करते हुए मृतात्मा की सद्गति तथा परिजनों के शोक निवारण की प्रार्थना करें ।।
पूर्णाहुति कपाल क्रिया का समय आने तक यह क्रम चालू रखा जाए ।।
श्मशान घाट पर की गई प्रार्थना साधना का अपना ही महत्त्व है ।।
तन्त्र विद्या के समर्थक तो उसे अनिवार्य मानते हैं ।
कपाल क्रिया से पूर्व स्थान न छोड़ने की परिपाटी है ।।
कपाल क्रिया तब की जाती है, जब खोपड़ी की हड्डियाँ आग पकड़ लें और तालू भाग में छेद करने की स्थिति बन जाए ।।
उस समय का उपयोग जप करके किया जाना चाहिए ।।
इस बीच अनुभवी व्यक्ति चिता की अग्नि सँभालते हैं ।।
लकड़ियों को उचित स्थान पर जमाने का क्रम बनाये रखें ।।
परस्पर चर्चा वार्तालाप न करें ।।
आवश्यकता पड़े, तो सम्बन्धित व्यक्ति को इशारे से बुलाकर संक्षिप्त चर्चा कर लें ।।
वातावरण शान्त बनाये रखें ।।
सभी लोग गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करते हुए मृतात्मा की सद्गति तथा परिजनों के शोक निवारण की प्रार्थना करें ।।
पूर्णाहुति कपाल क्रिया का समय आने तक यह क्रम चालू रखा जाए ।।
श्मशान घाट पर की गई प्रार्थना साधना का अपना ही महत्त्व है ।।
तन्त्र विद्या के समर्थक तो उसे अनिवार्य मानते हैं ।
कपाल क्रिया से पूर्व स्थान न छोड़ने की परिपाटी है ।।
कपाल क्रिया तब की जाती है, जब खोपड़ी की हड्डियाँ आग पकड़ लें और तालू भाग में छेद करने की स्थिति बन जाए ।।
उस समय का उपयोग जप करके किया जाना चाहिए ।।
इस बीच अनुभवी व्यक्ति चिता की अग्नि सँभालते हैं ।।
लकड़ियों को उचित स्थान पर जमाने का क्रम बनाये रखें ।।
पूर्णाहुति- कपाल क्रिया
दिशा एवं प्रेरणा- मस्तिष्क जीवन का वास्तविक केन्द्र
संस्थान है ।।
उसमें जैसे विचार या भाव उठते हैं, उसी के अनुकूल जीवन की दिशा निर्धारित होती है और उत्थान पतन का वैसा ही संयोग बन जाता है ।।
मस्तिष्क को सीमाबद्ध- संकुचित नहीं रहना चाहिए, उसको व्यापक- विशाल आधार पर सुविकसित होना चाहिए- इस तथ्य का प्रतिपादन करने के लिए कपाल क्रिया का कर्मकाण्ड करते हैं ।।
खोपड़ी फोड़कर विचार संस्थान को यह अवसर देते हैं कि एक छोटी परिधि के भीतर ही वह सोचता न रहे, वरन् विश्व मानव की विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अपना कर्तव्य पथ निर्धारित करे ।।
मस्तिष्क की हड्डी का घेरा टूटने से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की सुविधा हुई ।।
मृत और जीवित सभी के लिए मानसिक संकीर्णता हानिकारक बताकर सोचने का दायरा बड़ा करना इस पूर्णाहुति क्रिया का लक्ष्य है ।।
जिसका मस्तिष्क अंतिम समय तक विवेकशील बना रहा, समझना चाहिए कि उसने जीवन यज्ञ की ठीक तरह पूर्णाहुति कर ली- यह प्रतीक संकेत इस कपाल क्रिया में मिलता है ।।
उसमें जैसे विचार या भाव उठते हैं, उसी के अनुकूल जीवन की दिशा निर्धारित होती है और उत्थान पतन का वैसा ही संयोग बन जाता है ।।
मस्तिष्क को सीमाबद्ध- संकुचित नहीं रहना चाहिए, उसको व्यापक- विशाल आधार पर सुविकसित होना चाहिए- इस तथ्य का प्रतिपादन करने के लिए कपाल क्रिया का कर्मकाण्ड करते हैं ।।
खोपड़ी फोड़कर विचार संस्थान को यह अवसर देते हैं कि एक छोटी परिधि के भीतर ही वह सोचता न रहे, वरन् विश्व मानव की विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अपना कर्तव्य पथ निर्धारित करे ।।
मस्तिष्क की हड्डी का घेरा टूटने से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की सुविधा हुई ।।
मृत और जीवित सभी के लिए मानसिक संकीर्णता हानिकारक बताकर सोचने का दायरा बड़ा करना इस पूर्णाहुति क्रिया का लक्ष्य है ।।
जिसका मस्तिष्क अंतिम समय तक विवेकशील बना रहा, समझना चाहिए कि उसने जीवन यज्ञ की ठीक तरह पूर्णाहुति कर ली- यह प्रतीक संकेत इस कपाल क्रिया में मिलता है ।।
क्रिया और भावना-
अन्त्येष्टि करने वाले सज्जन बाँस हाथ में लें,
चिता के शिरोभाग की ओर खड़े हों ।।
सभी लोग खड़े हो जाएँ, पूर्णाहुति के लिए हवन सामग्री, नारियल- गोला तैयार रखें । सभी के हाथों में पूर्णाहुति के लिए हवन सामग्री तुलसी चन्दन आदि की लकड़ी के टुकड़े दे दिये जाएँ ।।
खोपड़ी की हड्डी का मध्य भाग तालु मुलायम होता है, वह जोड़ सबसे पहले जलकर खुल जाता है- वहाँ बाँस की नोकों को दबाव देकर छेद कर दें ।। अब
पूर्णाहुति: मन्त्र
सभी लोग खड़े हो जाएँ, पूर्णाहुति के लिए हवन सामग्री, नारियल- गोला तैयार रखें । सभी के हाथों में पूर्णाहुति के लिए हवन सामग्री तुलसी चन्दन आदि की लकड़ी के टुकड़े दे दिये जाएँ ।।
खोपड़ी की हड्डी का मध्य भाग तालु मुलायम होता है, वह जोड़ सबसे पहले जलकर खुल जाता है- वहाँ बाँस की नोकों को दबाव देकर छेद कर दें ।। अब
पूर्णाहुति: मन्त्र
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांति: शांति: शांतिः
ओम् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।।
बोलते हुए पूर्णाहुति का गोला बाँस में सहारे सिर
के पास रख दिया जाए, सभी लोग हवन सामग्री होमें ।।
भावना करें कि मस्तिष्क स्थित जीवन संचालक विचार-
तंत्रिका के जाल (सर्किट) को यज्ञीय पुट देकर विश्व चेतना में मिला दिया गया ।। अपने
मस्तिष्क को भी इस संस्कार से युक्त बनाया जा रहा है ।।
पूर्णाहुति- कपाल क्रिया के बाद चिता शांत होने
तक देख−रेख के लिए २- ४ व्यक्ति छोड़कर शेष वापस लौट सकते हैं अथवा स्थानीय परम्परानुसार
एक साथ सम्पूर्ण कृत्य समाप्त होने पर सामूहिक स्नान, जलांजलि, शोक प्रार्थना आदि के
कृत्य किये जा सकते हैं ।।
वहाँ से चलने के पहले नीचे लिखे अनुसार समापन कर्म कर लिये जाने चाहिए ।।
वहाँ से चलने के पहले नीचे लिखे अनुसार समापन कर्म कर लिये जाने चाहिए ।।
वसोर्धारा (स्नेह सिंचन):-
वसोर्धारा में घी की धारा छोड़ते हुए पूर्णाहुति
का अंतिम भाग पूर्ण किया जाता है ।।
घृत का दूसरा नाम स्नेह है, स्नेह प्यार को कहते हैं ।।
प्यार भरा जीवन ही सराहनीय है ।।
रूखा, नीरस, निष्ठुर, कर्कश, स्वार्थी और संकीर्ण जीवन तो धिक्कारने योग्य ही समझा जाता है ।।
वसोर्धारा में घृत की, स्नेह की अखण्ड धारा:
घृत का दूसरा नाम स्नेह है, स्नेह प्यार को कहते हैं ।।
प्यार भरा जीवन ही सराहनीय है ।।
रूखा, नीरस, निष्ठुर, कर्कश, स्वार्थी और संकीर्ण जीवन तो धिक्कारने योग्य ही समझा जाता है ।।
वसोर्धारा में घृत की, स्नेह की अखण्ड धारा:
ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं, वसो पवित्रमसि सहस्रधारम्।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः, पवित्रेण शतधारेण
सुप्वा, कामधुक्षः स्वाहा।
मन्त्र से डाली जाती है, उसका तात्पर्य यही है
कि व्यक्ति का जीवन स्नेह धारा में डूबा रहे ।।
परिक्रमा और नमस्कार-
उपस्थित सभी लोग चिता की परिक्रमा:
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च |
तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिणपदे पदे | |
मन्त्र के साथ करते हुए स्वर्गीय आत्मा के प्रति
अपना सम्मान एवं सद्भाव प्रकट करते हैं ।।:
नमोस्त्वनन्ताय सहस्त्र मूर्तये, सहस्त्रपादाक्षि
शिरोरु बाहवे।
सहस्त्र नाम्ने पुरुषायशाश्वते, सहस्त्रकोटी युग
धरिणे नम:।
इत्यादि मन्त्र से नमस्कार करते हैं ।।
यह नमस्कार ईश्वर के लिए है, साथ ही स्वर्गीय आत्मा के लिए भी ।।
ईश्वर के लिए इसलिए कि उसने दिवंगत आत्मा को मानव जीवन का स्वर्णिम सौभाग्य प्रदान किया और यह अवसर दिया कि अनन्त काल तक के लिए अविच्छिन्न सुख- शान्ति यदि वह चाहे तो प्राप्त कर ले ।।
इस महान् अनुकम्पा के लिए ईश्वर को नमस्कार किया जाता है ।।
मृतक व्यक्ति के द्वारा जीवित व्यक्तियों के साथ कोई उपकार हुए हों, उसके लिए यह सजीव विश्व कृतज्ञ है ।।
इस कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए जन- जीवन का यह प्रतिनिधि- अभिवन्दन है ।।:
यह नमस्कार ईश्वर के लिए है, साथ ही स्वर्गीय आत्मा के लिए भी ।।
ईश्वर के लिए इसलिए कि उसने दिवंगत आत्मा को मानव जीवन का स्वर्णिम सौभाग्य प्रदान किया और यह अवसर दिया कि अनन्त काल तक के लिए अविच्छिन्न सुख- शान्ति यदि वह चाहे तो प्राप्त कर ले ।।
इस महान् अनुकम्पा के लिए ईश्वर को नमस्कार किया जाता है ।।
मृतक व्यक्ति के द्वारा जीवित व्यक्तियों के साथ कोई उपकार हुए हों, उसके लिए यह सजीव विश्व कृतज्ञ है ।।
इस कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए जन- जीवन का यह प्रतिनिधि- अभिवन्दन है ।।:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म
शान्ति:,
सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
सब लोग मिलकर शान्ति पाठ करें ।।
दिवंगत आत्मा के शरीर त्याग से जो विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं, मृतक के शरीर त्यागने पर जो अशान्ति हुई हो, उसकी शान्ति के लिए यह शान्ति पाठ किया जाता है ।।
दिवंगत आत्मा के शरीर त्याग से जो विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं, मृतक के शरीर त्यागने पर जो अशान्ति हुई हो, उसकी शान्ति के लिए यह शान्ति पाठ किया जाता है ।।
इस प्रकार अन्त्येष्टि संस्कार पूरा करने पर, संस्कार
में सम्मिलित लोग किसी जलाशय पर जाकर स्नान करें, वस्त्र धोए, लोकाचार के अनुसार नीम
की पत्ती चबाने जैसे कृमिनाशक उपचार करें ।।
अस्थि विसर्जन
दिशा एवं प्रेरणा- अन्त्येष्टि के बाद अस्थि अवशेष
एकत्रित करके, उन्हें किसी पुण्य तीर्थ में विसर्जित करने की परिपाटी है ।। जीवन का
कण- कण सार्थक हो, इसलिए शरीर के अवशेष भी पुण्य क्षेत्र में डाल दिये जाते हैं ।।
अस्थियाँ चिता शान्त होने पर तीसरे दिन उठाई जाती
हैं, जल्दी उठानी हों, तो दूध युक्त जल से अथवा केवल जल से सिंचित करके उठाते हैं ।।
अस्थियाँ उठाते समय नीचे लिखा मन्त्र बोला जाए ।।:
ॐ आ त्वा मनसाऽनर्तेन, वाचा ब्रह्मणा त्रय्या विद्यया,
पृथिव्यामक्षिकायामपा, रसेन निवपाम्यसौ ।। -का०श्रौ०सू०२५.८.६
इन अस्थियों को कलश या पीत वस्त्र में नीचे कुश
रखकर एकत्रित किया जाए, फिर इन्हें तीर्थ क्षेत्र (नदी, तालाब या अन्य पवित्र स्थल)
में से जाकर उसे विसर्जन स्थल के निकट रखें ।।
हाथ में यव, अक्षत, पुष्प लेकर यम और पितृ आवाहन के मन्त्र बोलें, पुष्प चढ़ाकर हाथ जोड़कर नमस्कार करें:-
हाथ में यव, अक्षत, पुष्प लेकर यम और पितृ आवाहन के मन्त्र बोलें, पुष्प चढ़ाकर हाथ जोड़कर नमस्कार करें:-
यम
ॐ यमग्ने कव्यवाहन, त्वं चिन्मन्यसे रयिम् ।। तन्नो
गीर्भिः श्रवाय्यं, देवन्ना पनया युजम् ।।
ॐ यमाय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।- १९.६४ पितृ
ॐ यमाय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।- १९.६४ पितृ
ॐ इदं पितृभ्यो नमोऽअस्त्वद्य ये, पूर्वासो यऽ
उपरास ऽईयुः ।। ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता, ये वा नून सुवृजनासु विक्षु ।। ॐ पितृभ्यो
नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।। -१९.६८
अब अंजलि में अस्थि कलश या पोटली लेकर प्रवाह में
या किनारे खड़े होकर यव- अक्षत के साथ निम्न मन्त्र पढ़ते हुए अस्थियों को विसर्जित
प्रवाहित किया जाए ।।:
ॐ अस्थि कृत्वा समिधं तदष्टापो, असादयन् शरीरं
ब्रह्म प्राविशत् ।। ॐ सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा, द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा
।। अपो वा गच्छ यदि तत्र ते, हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वाहा॥ अथर्व० ११.१०.२९,
ऋ० १०.१६.३
तदुपरान्त हाथ जोड़कर निम्न मन्त्र के साथ मृतात्मा
का ध्यान करते हुए प्रार्थना करें:-
ॐ ये चित्पूर्व ऋतसाता, ऋतजाता ऋतावृधः ।। ऋषीन्तपस्वतो
यम, तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥ ॐ आयुर्विश्वायुः परिपातु त्वा, पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात्
।। यत्रासते सुकृतो यत्र तऽईयुः तत्र त्वा देवः सविता दधातु॥ -अथर्व० १८.२.१५,५५
तत्पश्चात् घाट पर ही तर्पण आदि विशेष क्रम सम्पन्न
करें ।।
तर्पण के बाद तीर्थ क्षेत्र में विद्यमान सत् शक्तियों को नमस्कार करके क्रम समाप्त करें:-
तर्पण के बाद तीर्थ क्षेत्र में विद्यमान सत् शक्तियों को नमस्कार करके क्रम समाप्त करें:-
ॐ ये तीर्थानि प्रचरन्ति, सृकाहस्ता निषंगिण्।।
तेषा सहस्रयोजनेअव धन्वानि तन्मसि ॥ -१६.६१
तेषा सहस्रयोजनेअव धन्वानि तन्मसि ॥ -१६.६१
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