डॉक्टरी औषधियां शारीरिक एवं मानसिक
रोगों एवं बाधाओं का शमन तो करती हैं।
लेकिन वे प्रत्येक व्यक्ति की जेब
की क्षमता के भीतर नहीं आती।
दूसरी ओर कुछ सिद्ध साधक वनस्पतियों
द्वारा ऐसी-ऐसी बाधाओं का उपचार करते हैं जहां परंपरागत चिकित्सक असमर्थ नजर आते हैं।
ऐसी ही कुछ वनस्पतियों से होने वाले अमूल्य लाभ की जानकारी है इस लेख में
सभी विज्ञ-जन जानते हैं कि वनस्पतियों
(पेड़-पौधे) में भी जान होती है। इनको तांत्रिक साधना हेतु, मूल वृक्ष या स्थान से तोड़ा
या अलग किया जाता है।
इसके लिए उस वनस्पति से शुभ-मुहुर्त्तानुसार,
एक दिन पूर्व सायं काल के समय अपने साथ ले जाने का निवेदन (न्यौता) किया जाता है।
अगले दिन दिन प्रातःकाल - अनटोके-
अनदेखे - उस वनस्पति को काट या तोड़कर लाया जाता है।
तत्पश्चात उसका पंचोपचार आदि विधि
से मंत्रों द्वारा पूजन किया जाता है।
तब वह वनस्पति अभिमंत्रित होकर अपना
प्रभाव-चमत्कार कई गुना, देती है।
अलग-अलग वनस्पति, पूजा स्थान में रखी,
बांधी या लटकाई जाती है।
गुणी तांत्रिक वैद्य उसका औषधी में
भी प्रयोग करते हैं।
यहां अधिक विस्तार में न जाकर, केवल
वनस्पति तंत्र की उपचार एवं फल प्रदान करने वाली शक्ति का संक्षेप में ही वर्णन किया
गया है।
1. श्वेतार्क (सफेद -ऑक)
कामना पूर्ति:
रवि-पुष्य योग मे लायी गयी जड़ तथा
उसकी तुरंत पूजा से घर में धन एवं सौभाग्य की वृद्धि, राज्य एवं अधिकारी आदि की अनुकूलता,
कार्य में सफलता, मान-सम्मान, उन्नति आदि मिलती है। इस पूजा से रोगों का नाश, शत्रु
की हार, मानसिक कष्ट, बाधाओं तथा शोक आदि का शमन होता है।
विरोधियों को पराजय, सभा-समाज में
मान-सम्मान एवं वाणी में ओजस्वी प्रभाव उत्पन्न होता है।
गृह रक्षा: अपने घर में रवि-पुष्य
योग में एक श्वेतार्क का पौधा ऐसे स्थान पर लगायें कि घर के मुखय द्वार से पौधा दिखाई
दे। यह पौधा घर को आधि-व्याधि, नजर-टोना, मंत्र-तंत्र तथा भूत-प्रेत, दुष्ट ग्रहों
के दुष्प्रभाव से बचायेगा। इसकी रोज पूजा भी की जाय तो अधिक लाभ मिलता है।
शरीर-रक्षा: श्वेतार्क मूल का टुकड़ा
ताबीज में भरकर भुजा या गले में धारण करने से शरीर सुरक्षित रहता है, आपदाओं, भूत-प्रेत,
नजर-टोटका आदि का कोई प्रभाव, नहीं होता है।
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2. रुद्राक्ष: यह एक फल का बीज या
गुठली है। यह सुलभता से एक से चौदहमुखी और यहां तक इक्कीसमुखी तक होता है। विभिन्न
मुखी रुद्राक्ष के अलग-अलग देवता के प्रतीक है। इसकी माला तथा कण्ठा (लॉकेट) धारण करने
से विभिन्न देवताओं की कृपा प्राप्त होती है।
शिवकृपा के लिए: आप या तो पंचमुखी
रुद्राक्ष की शुद्ध अभिंमत्रित माला धारण करें या फिर तांबे की कटोरी या प्लेट में
कुछ रुद्राक्ष (या पांच) रख लें, इन्हें शिवलिंग की तरह नित्य पूजते रहें, शिव कृपा
प्राप्त होगी।
दैनिक बाधाओं का निवारण:
1. शुद्ध रुद्राक्ष माला धारण करने
से भूतादि की बाधा, अभिचार कर्म तथा अन्य दुष्प्रभावों से रक्षा होती है। वन, पर्वत,
श्मशान, युद्ध भूमि, अपरिचित स्थान, संकटग्रस्त स्थान में आपका तन-मन सुरक्षित रहता
है।
2. रुद्राक्ष को चंदन की भांति जल
में घिसकर, इसका लेप शरीर में लगाने से भौतिक व्याधियों से शरीर की रक्षा होती है।
3. चंदन की भांति माथे पर लेप या तिलक
करने से शिवकृपा मिलती है, लोगों पर सम्मोहन जैसा प्रभाव पड़ता है। माथे पर लगा लेप
सिर की पीड़ा को दूर करता है।
उदर विकार: पांच रुद्राक्ष (पांच मुखी
भी) एक गिलास जल में डालकर सांय को ढककर रख दें। वह जल खाली पेट पियें, पुनः गिलास
को भरकर रख दें, दूसरे दिन प्रातः वह जल पियें वह गिलास या पात्र तांबे का ही होना
चाहिए। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहे। इस जल के सेवन से सुस्ती, अनिद्रा, आलस्य, गैस,
कब्ज और पेट के सभी विकार दूर हो जाते हैं।
रक्त चाप: पांच रुद्राक्ष - (पंचमुखी
हों,) उसके दाने या पूरी माला शरीर को स्पर्श करती हुई पहनें। इससे रक्त चाप (ब्लड-प्रेशर)
नियंत्रित रहता है। उपर्युक्त जल पीने से भी लाभ होता है।
बाल-रोग: छोटे बालकों के गले में रुद्राक्ष
के तीन दाने पहना दें। साथ ही, रुद्राक्ष को पानी में घिसकर चटायें। सोते समय छाती
पर लेप भी करें। इस उपचार से रात के समय सोते-सोते रोना डरकर चौंक जाना, हाथ-पैर पटकना,
नजर-दोष आदि सारी परेशानियां दूर हो जाती है।
बांझपन से छुटकारा: यदि स्त्री सभी
प्रकार से मां बनने योग्य है तो यह उपचार उसे गर्भवती बना देता है। रुद्राक्ष का शुद्ध
नया एक दाना और एक तोला 'सुगंध-रास्ना' खरल में कूट-पीस कर चूर्ण बनायें। यह चूर्ण
2-3 माशे-दोनों समय गाय के दूध के साथ दें। स्त्री के ऋतुमती होने के पहले दिन से शुरू
करके लगातार सात दिन तक इस उपाय को करें। इस उपाय से बांझपन दूर होकर, स्त्री को गर्भ
लाभ होता है।
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3. गुंजा: यह एक फली का बीज है। इसको
चिरमिटी, धुंघची, रत्ती आदि नामों से जाना जाता है। इसे आप सुनारों की दुकानों पर देख
सकते हैं। इसका वजन एक रत्ती होता है, जो सोना तोलने के काम आती है। यह तीन रंगों में
मिलती है। सफेद गुंजा का प्रयोग तंत्र तथा उपचार में होता है, न मिलने पर लाल गुंजा
भी प्रयोग में ली जा सकती है। परंतु काली गुंजा दुर्लभ होती है।
वर-वधू के लिए: विवाह के समय लाल गुंजा
वर के कंगन में पिरोकर पहनायी जाती है। यह तंत्र का एक प्रयोग है, जो वर की सुरक्षा,
समृद्धि, नजर-दोष निवारण एवं सुखद दांपत्य जीवन के लिए है। गुंजा की माला आभूषण के
रूप में पहनी जाती है। भगवान श्री कृष्ण भी गुंजामाला धारण करते थे।
विद्वेषण में प्रयोग: किसी दुष्ट,
पर-पीड़क, गुण्डे तथा किसी का घर तोड़ने वाले के घर में लाल गुंजा - रवि या मंगलवार के
दिन इस कामना के साथ फेंक दिये जाये - 'हे गुंजा ! आप मेरे कार्य की सिद्धि के लिए
इस घर-परिवार में कलह (विद्वेषण) उत्पन्न कर दो' तो आप देखेंगे कि ऐसा ही होने लगता
है।
विष-निवारण: गुंजा की जड़ धो-सुखाकर
रख ली जाये। यदि कोई व्यक्ति विष-प्रभाव से अचेत हो रहा हो तो उसे पानी में जड़ को घिसकर
पिलायें।
इसको पानी में घिस कर पिलाने से हर
प्रकार का विष उतर जाता है।
सम्मान प्रदायक: शुद्ध जल (गंगा का,
अन्य तीर्थों का जल या कुएं का) में गुंजा की जड़ को चंदन की भांति घिसें। अच्छा यही
है कि किसी ब्राह्मण या कुंवारी कन्या के हाथों से घिसवा लें। यह लेप माथे पर चंदन
की तरह लगायें। ऐसा व्यक्ति सभा-समारोह आदि जहां भी जायेगा, उसे वहां विशिष्ट सम्मान
प्राप्त होगा।
पुत्रदाता: पुत्र की चाह वाली स्वस्थ
स्त्री, शुभ नक्षत्र में गुंजा की जड़ को ताबीज में भरकर कमर में धारण करें। ऐसा करने
से स्त्री पुत्र लाभ प्राप्त करती है।
शत्रु में भय उत्पन्न: गुंजा-मूल
(जड़) को किसी स्त्री के मासिक स्राव में घिस कर आंखों में सुरमे की भांति लगाने से
शत्रु उसकी आंखों को देखते ही भाग खड़े होते हैं।
अलौकिक तामसिक शक्तियों के दर्शन:
भूत-प्रेतादि शक्तियों के दर्शन करने के लिए मजबूत हृदय वाले व्यक्ति, गुंजा मूल को
रवि-पुष्य योग में या मंगलवार के दिन- शुद्ध शहद में घिस कर आंखों में अंजन (सुरमा/काजल)
की भांति लगायें तो भूत, चुडैल, प्रेतादि के दर्शन होते हैं।
ज्ञान-बुद्धि वर्धक: गुंजा-मूल को
बकरी के दूध में घिसकर हथेलियों पर लेप करे, रगड़े कुछ दिन तक यह प्रयोग करते रहने से
व्यक्ति की बुद्धि, स्मरण-शक्ति तीव्र होती है, चिंतन, धारणा आदि शक्तियों में प्रखरता
व तीव्रता आती है।
गुप्त धन दर्शन: अंकोल या अंकोहर के
बीजों के तेल में गुंजा-मूल को घिस कर आंखों पर अंजन की तरह लगायें। यह प्रयोग रवि-पुष्य
योग में, रवि या मंगलवार को ही करें। इसको आंजने से पृथ्वी में गड़ा खजाना तथा आस पास
रखा धन दिखाई देता है।
शत्रु दमन प्रयोग: काले तिल के तेल
में गुंजामूल को घिस कर, उस लेप को सारे शरीर में मल लें। ऐसा व्यक्ति शत्रुओं को बहुत
भयानक तथा सबल दिखाई देगा। फलस्वरूप शत्रुदल चुपचाप भाग जायेगा।
कुष्ठ निवारण प्रयोग: गुंजा मूल को
अलसी के तेल में घिसकर लगाने से कुष्ठ (कोढ़) के घाव ठीक हो जाते हैं।
अंधापन समाप्त:
गुंजा-मूल को गंगाजल में घिसकर आंखों
मे लगाने से आंसू बहुत आते हैं।
देशी घी (गाय का) में घिस कर लगाते
रहने से इन दोनों प्रयोगों से अंधत्व दूर हो जाता है।
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4. निर्गुण्डी: निर्गुण्डी (मेउडी,
सम्हालु) का पौधा अरहर की भांति होता है जो नदी, पोखर, सड़क के किनारों एवं जंगलों में
मिल जाता है। इसकी पत्ती पर सफेदी सी पुती रहती है। यह पौधा वर्षा ऋतु में खूब पैदा
होता है।
शुद्ध वाणी उच्चारण: निर्गुण्डी मूल
को सुखा कर, कूट-पीस कर चूर्ण बना लें। यह चूर्ण 3 माशा, गुनगुने जल से नित्य लें।
इस प्रयोग से कण्ठावरोध, तुतलाना, हकलाना, उच्चारण-दोष दूर होकर कण्ठ-स्वर अत्यधिक
मधुर हो जाता है। यह प्रयोग गायकों एवं संगीतकारों के लिए अत्यधिक लाभदायक है।
दुबलापन दूर हो: निर्गुण्डी का चूर्ण
प्रतिदिन, दोनों वक्त घी में मिलाकर (3 माशे) सेवन करते रहने से, शरीर की दुर्बलता
दूर होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट हो जाता है। साथ में दूध भी पीना चाहिये। यह चूर्ण शक्तिवर्द्धक,
रक्त शोधक, पाचन क्रियावर्धक है तथा रक्त संचार अवरोध आदि दूर करके शरीर में रस, रक्त
की वृद्धि करता है। रक्त दूषित हो जाने से सभी प्रकार के चर्म रोग जैसे दाद, खाज-खुजली,
फोड़ा-फुंसी, कुष्ठ आदि उत्पन्न हो जाते हैं। निर्गुण्डी-मूल का चूर्ण (3 माशा) प्रातः
सायं शहद में मिलाकर सेवन करें। इससे रक्त शोधन होकर, सभी चर्म-रोग ठीक होकर शरीर स्वस्थ-सबल
होकर चेहरे पर कांति आती हैं।
रक्त शोधक व चर्म रोग निवारक: रक्त
दूषित हो जाने से सभी प्रकार के चर्म रोग जैसे दाद, खाज-खुजली, फोड़ा-फुंसी, कुष्ठ आदि
उत्पन्न हो जाते हैं। निर्गुण्डी-मूल का चूर्ण (3 माशा) प्रातः सायं शहद में मिलाकर
सेवन करें। इससे रक्त शोधन होकर, सभी चर्म-रोग ठीक होकर शरीर स्वस्थ-सबल होकर चेहरे
पर कांति आती हैं।
नोट: सभी तांत्रिक प्रयोग, पौधा लाना
तथा औषधि सेवन, केवल शुभ-मुहूर्त काल में ही प्रारंभ करें, तभी इनसे शक्ति और लाभ प्राप्त
होता है, अन्यथा नहीं।
निर्गुण्डी-कल्प: प्राचीन आयुर्वेद
एवं तंत्राचार्यों तथा शास्त्रों के अनुसार निर्गुण्डी का कायाकल्प विधान भी दिया गया
है। उसके लिए निर्गुण्डी मूल का चूर्ण बनायें तथा इसे प्रातः सायं बकरी के दूध के साथ
सेवन करें।
यह प्रयोग एक सप्ताह तक करने से -
नख, दंत, बाल आदि गिराकर पुनः नये उगवाता है।
इस प्रयोग को, ब्रह्मचर्य, सात्विक
जीवन, योगासन, एकांतवास, सात्विक भोजन-फलाहार के साथ, 21 दिनों तक सेवन करने से, व्यक्ति
को अनेक सिद्धियां (जल स्तंभन, शस्त्र स्तंभन आदि) प्रदान करता है।
सात्विक जीवन के साथ चालीस दिनों के
प्रयोग से खेचरी -विद्या प्राप्त होती है। अर्थात् व्यक्ति आकाश में पक्षी की भांति
उड़ सकता है।
शांतिदाता तंत्र: निर्गुण्डी की जड़
को घर में किसी सुरक्षित स्थान (पवित्र-स्थान) पर रख दें या किसी नये कपड़े में बांध
दें या ताबीज में भरकर भुजा या गले में धारण कर लें। इसके प्रभाव से घर में सुख-शांति
रहती है, आर्थिक, मानसिक तनाव दूर होता है, दरिद्रता, अशांति, उपद्रव, बैर-विरोध आदि
दूर हो जाते हैं।
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