मिथ्या ज्ञान
मिथ्या ज्ञान दो प्रकार का है -- भ्रम और मतिभ्रम।
भ्रम में ज्ञान का विषय विद्यमान है परंतु वास्तविक रूप में दिखाता नहीं,
मतिभ्रम में बाहर कुछ होता ही नही, हम कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेते हैं।
मिथ्या ज्ञान दो प्रकार का है -- भ्रम और मतिभ्रम।
भ्रम में ज्ञान का विषय विद्यमान है परंतु वास्तविक रूप में दिखाता नहीं,
मतिभ्रम में बाहर कुछ होता ही नही, हम कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेते हैं।
हम में से हर एक कभी न कभी भ्रम या मतिभ्रम का शिकार होता है, कभी द्रष्टा और दृष्ट के दरमियान परदा पड़ जाता है।
कभी वातावरण मिथ्या ज्ञान का कारण हो जाता है व्यक्ति की हालत में इसे अविद्या कहते है।
माया व्यापक अविद्या है जिसमें सभी मनुष्य फँसे हैं।
कुछ विचारक इसे भ्रम के रूप में देखते हैं, कुछ मतिभ्रम के रूप में।
कभी वातावरण मिथ्या ज्ञान का कारण हो जाता है व्यक्ति की हालत में इसे अविद्या कहते है।
माया व्यापक अविद्या है जिसमें सभी मनुष्य फँसे हैं।
कुछ विचारक इसे भ्रम के रूप में देखते हैं, कुछ मतिभ्रम के रूप में।
पदार्थ गुणसमूह ही है और सभी गुण मानवीय अनुभव जनित ही हैं, समस्त अस्तित्व और सत्ता चेतन के अनुभवों और विचारों से बनी है।
हमारे उपलब्ध अनुभव (Sense Experience) हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं|
हमारे उपलब्ध अनुभव (Sense Experience) हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं|
ज्ञान की प्राप्ति में मन क्रियाहीन नहीं होता, क्रियाशील होता है।
सभी घटनाएँ देश और काल में पात्र द्वारा घटती प्रतीत होती है, परंतु देश, काल और पात्र कोई बाहरी पदार्थ नहीं, ये मन की गुणग्राही शक्ति की आकृतियाँ/ मापदंड हैं।
प्रत्येक उपलब्ध अनुभव को इन तीनों साँचों, देश, काल और पात्र में से गुजरना पड़ता है।
इस क्रम में उनका रंग रूप बदल जाता है।
इसका परिणाम यह है कि हम किसी पदार्थ को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते, देश, काल और पात्र के चश्में में से देखते हैं, जिसे हम आरंभ से पहने हैं और सामान्य मनुष्य के लिये जिन्हें उतारना संभव नहीं है
सभी घटनाएँ देश और काल में पात्र द्वारा घटती प्रतीत होती है, परंतु देश, काल और पात्र कोई बाहरी पदार्थ नहीं, ये मन की गुणग्राही शक्ति की आकृतियाँ/ मापदंड हैं।
प्रत्येक उपलब्ध अनुभव को इन तीनों साँचों, देश, काल और पात्र में से गुजरना पड़ता है।
इस क्रम में उनका रंग रूप बदल जाता है।
इसका परिणाम यह है कि हम किसी पदार्थ को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते, देश, काल और पात्र के चश्में में से देखते हैं, जिसे हम आरंभ से पहने हैं और सामान्य मनुष्य के लिये जिन्हें उतारना संभव नहीं है
जॉन लॉक (John Locke) ने बाह्म पदार्थों के गुणों में प्रधान और अप्रधान का भेद देखा।
प्रधान गुण प्राकृतिक पदार्थों में विद्यमान है, परंतु अप्रधान गुण वह प्रभाव है जो बाह्म पदार्थ हमारे मन पर डालते हैं।
बर्कले ने कहा कि जो कुछ अप्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जाता है, वही प्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जा सकता है।
पदार्थ गुणसमूह ही है और सभी गुण मानवी हैं, समस्त अस्तित्व और सत्ता चेतनों और विचारों से बनी है।
हमारे उपलब्ध अनुभव (Sense Experience) हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं, परंतु ये प्रकृति के आघात के परिणाम नहीं, मन की क्रिया के फल हैं।
जीवात्मा का स्थान कहाँ है?
यह भी जगत् का अंश है, ज्ञाता नहीं, आप्त आभास है।
ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ ही नहीं, यह सारा खेल होता क्यों है?
एक विचार के अनुसार मायावी अपनी दिल्लगी के लिये खेल खेलता है, दूसरे विचार के अनुसार माया एक परदा है जो शुद्ध ब्रह्म को ढक देती है।
पहले विचार के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है, दूसरे के अनुसार उसकी अशक्ति की प्रतीक है।
सामान्य विचार के अनुसार मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद गीता में प्रतिपादित है।
इसका प्रसार प्रमुख रूप से शंकराचार्य ने किया।
उपनिषदों में मायावाद का स्पष्ट वर्णन नहीं, माया शब्द भी एक दो बार ही प्रयुक्त हुआ है।
ब्रह्मसूत्रों में शंकर ने अद्वैत को देखा, रामानुज ने इसे नहीं देखा और बहुतेरे विचारकों के लिये रामानुज की व्याख्या अधिक विश्वास करने के योग्य है।
भगवद्गीता दार्शनिक कविता है, दर्शन नहीं।
शंकर की स्थिति प्राय: भाष्यकार की है।
मायावाद के समर्थन में गौड़पाद की कारिकाओं का स्थान विशेष महत्व का है, इसपर कुछ विचार करें।
प्रधान गुण प्राकृतिक पदार्थों में विद्यमान है, परंतु अप्रधान गुण वह प्रभाव है जो बाह्म पदार्थ हमारे मन पर डालते हैं।
बर्कले ने कहा कि जो कुछ अप्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जाता है, वही प्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जा सकता है।
पदार्थ गुणसमूह ही है और सभी गुण मानवी हैं, समस्त अस्तित्व और सत्ता चेतनों और विचारों से बनी है।
हमारे उपलब्ध अनुभव (Sense Experience) हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं, परंतु ये प्रकृति के आघात के परिणाम नहीं, मन की क्रिया के फल हैं।
जीवात्मा का स्थान कहाँ है?
यह भी जगत् का अंश है, ज्ञाता नहीं, आप्त आभास है।
जब ब्रह्म माया से आप्त होता है और तब अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर ईश्वर बन जाता है।
ईश्वर, जीव और बाह्म पदार्थ, प्राप्त ब्रह्म के ही तीन प्रकाशन हैं।ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ ही नहीं, यह सारा खेल होता क्यों है?
एक विचार के अनुसार मायावी अपनी दिल्लगी के लिये खेल खेलता है, दूसरे विचार के अनुसार माया एक परदा है जो शुद्ध ब्रह्म को ढक देती है।
पहले विचार के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है, दूसरे के अनुसार उसकी अशक्ति की प्रतीक है।
सामान्य विचार के अनुसार मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद गीता में प्रतिपादित है।
इसका प्रसार प्रमुख रूप से शंकराचार्य ने किया।
उपनिषदों में मायावाद का स्पष्ट वर्णन नहीं, माया शब्द भी एक दो बार ही प्रयुक्त हुआ है।
ब्रह्मसूत्रों में शंकर ने अद्वैत को देखा, रामानुज ने इसे नहीं देखा और बहुतेरे विचारकों के लिये रामानुज की व्याख्या अधिक विश्वास करने के योग्य है।
भगवद्गीता दार्शनिक कविता है, दर्शन नहीं।
शंकर की स्थिति प्राय: भाष्यकार की है।
मायावाद के समर्थन में गौड़पाद की कारिकाओं का स्थान विशेष महत्व का है, इसपर कुछ विचार करें।
गौड़पाद कारिकाओं के आरंभ में ही कहता है।
स्वप्न में जो कुछ दिखाई देता है, वह शरीर के अंदर ही स्थित होता है, वहाँ उसके लिये पर्याप्त स्थान नहीं।
स्वप्न देखनेवाला स्वप्न में दूर के स्थानों में जाकर दृश्य देखता है, परंतु जो काल इसमें लगता है वह उन स्थानों में पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं और जागने पर वह वहाँ विद्यमान नहीं होता।
स्वप्न में जो कुछ दिखाई देता है, वह शरीर के अंदर ही स्थित होता है, वहाँ उसके लिये पर्याप्त स्थान नहीं।
स्वप्न देखनेवाला स्वप्न में दूर के स्थानों में जाकर दृश्य देखता है, परंतु जो काल इसमें लगता है वह उन स्थानों में पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं और जागने पर वह वहाँ विद्यमान नहीं होता।
देश के संकोच के कारण हमें मानना पड़ता है कि स्वप्न में देखे हुए पदार्थ वस्तुगत अस्तित्व नहीं रखते, काल का संकोच भी बताता है कि स्वप्न के दृश्य वास्तविक नहीं।
इसके बाद गौडपाद कहता है कि स्वप्न और जागृत/ वास्तविक अवस्थाओं में कोई भेद नहीं, दोनों एक समान अस्थिर हैं।
वर्तमान प्रतीति से पूर्व का अभाव स्वीकृत है, इसके पीछे वाले अनुभव का भाव अभी हुआ नहीं; जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसा ही है "जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे जाते हैं, जैसे गंधर्वनगर दिखता है, उसी तरह पंडितों ने वेदांत में इस जगत् को देखा है।'
इसके बाद गौडपाद कहता है कि स्वप्न और जागृत/ वास्तविक अवस्थाओं में कोई भेद नहीं, दोनों एक समान अस्थिर हैं।
वर्तमान प्रतीति से पूर्व का अभाव स्वीकृत है, इसके पीछे वाले अनुभव का भाव अभी हुआ नहीं; जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसा ही है "जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे जाते हैं, जैसे गंधर्वनगर दिखता है, उसी तरह पंडितों ने वेदांत में इस जगत् को देखा है।'
गौड़पाद के तर्क में दो भाग हैं--
स्वप्न के दृश्य मिथ्या हैं, क्योंकि उनके लिये पर्याप्त देश और काल विद्यमान नहीं।
स्वप्न तथा जागरण/ वास्तविक अवस्थाओं में मौलिक भेद नहीं स्वप्न में देश और काल को अपर्याप्त कहने में गौड़पाद जागरण/ वास्तविकता के अनुभव को मापक और कसौटी मान रहा है।
उसकी यह परिकल्पना/ प्रमेय कि स्वप्न और जागरण/ वास्तविकता में कोई मौलिक भेद नहीं, इस से खंडित हो जाती है।
स्वप्न के दृश्य मिथ्या हैं, क्योंकि उनके लिये पर्याप्त देश और काल विद्यमान नहीं।
स्वप्न तथा जागरण/ वास्तविक अवस्थाओं में मौलिक भेद नहीं स्वप्न में देश और काल को अपर्याप्त कहने में गौड़पाद जागरण/ वास्तविकता के अनुभव को मापक और कसौटी मान रहा है।
उसकी यह परिकल्पना/ प्रमेय कि स्वप्न और जागरण/ वास्तविकता में कोई मौलिक भेद नहीं, इस से खंडित हो जाती है।
जागरण/ वास्तविकता और स्वप्न में कई मौलिक भेद हैं--
जागरण/ वास्तविकता का अनुभव मूल है, स्वप्न का अनुभव उसकी नकल है। जन्म का अंधा स्वप्न में देख नहीं सकता, बहरा सुन नहीं सकता।
स्वप्न में चित्रों का संयोग अनिर्णीत होता है, जागरण/ वास्तविकता में यह निर्णीत भी होता है। स्वप्न कल्पना का खेल है, इसमें बुद्धि काम नहीं करती। स्वप्न रूपक और कल्पना की भाषा का प्रयोग करता है, जागरण/ वास्तविकता में प्रत्ययों (concepts) की भाषा भी प्रयुक्त होती है।
स्वप्न में प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी दुनिया में विचरता है, जागरण/ वास्तविकता में हम साझी दुनिया में रहते हैं।
इस दूसरी वास्तविक दुनिया में व्यवस्था प्रमुख है।
इस जगत में एक ही तत्व हैं - इश्वर, बाकी जो भी दृश्य हैं वह ही माया हैं, जूठा हैं।
कैसे?
वह इसलिये क्योंकि हमारे शरीर के साथ, अथवा संसार में जो कुछ भी होता हैं, इसका प्रभाव हमपर अर्थात हम "आत्मा स्वरुप, पूर्ण ब्रह्म" नहीं पड़ता या पड़ सकता।
शारीरिक दुःख प्रारब्ध भोगने के लिये ही हैं, अगर कोई ज्ञान में रहकर उससे उदासीन रहे तो यह उसका ज्ञान हैं जो की दुःख निवृत्ति में सहायक हैं।
जागरण/ वास्तविकता का अनुभव मूल है, स्वप्न का अनुभव उसकी नकल है। जन्म का अंधा स्वप्न में देख नहीं सकता, बहरा सुन नहीं सकता।
स्वप्न में चित्रों का संयोग अनिर्णीत होता है, जागरण/ वास्तविकता में यह निर्णीत भी होता है। स्वप्न कल्पना का खेल है, इसमें बुद्धि काम नहीं करती। स्वप्न रूपक और कल्पना की भाषा का प्रयोग करता है, जागरण/ वास्तविकता में प्रत्ययों (concepts) की भाषा भी प्रयुक्त होती है।
स्वप्न में प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी दुनिया में विचरता है, जागरण/ वास्तविकता में हम साझी दुनिया में रहते हैं।
इस दूसरी वास्तविक दुनिया में व्यवस्था प्रमुख है।
इस जगत में एक ही तत्व हैं - इश्वर, बाकी जो भी दृश्य हैं वह ही माया हैं, जूठा हैं।
कैसे?
वह इसलिये क्योंकि हमारे शरीर के साथ, अथवा संसार में जो कुछ भी होता हैं, इसका प्रभाव हमपर अर्थात हम "आत्मा स्वरुप, पूर्ण ब्रह्म" नहीं पड़ता या पड़ सकता।
शारीरिक दुःख प्रारब्ध भोगने के लिये ही हैं, अगर कोई ज्ञान में रहकर उससे उदासीन रहे तो यह उसका ज्ञान हैं जो की दुःख निवृत्ति में सहायक हैं।
मन की पुरानी आदत है, भ्रांतियां पैदा करने की, मायावी स्वप्न नि्र्मित करने की, ज्ञानी इस आदत को निरंतर तोडता रहता है, व्यर्थ के स्वप्न से मुक्त होता रहता है, इससे अपेक्षा या प्रत्याशा की जड को काटा जा सकता है
ताकि सत्य अनुभव निरंतर उपलब्ध हो सके|
ताकि सत्य अनुभव निरंतर उपलब्ध हो सके|
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