Tuesday, August 2, 2016

परमहंसपरिव्राजकोपनिषत् -2

परमहंसपरिव्राजकोपनिषत्

पारिव्राज्यधर्मवन्तो यज्ज्ञानाद्ब्रह्मतां ययुः

तद्ब्रह्म प्रणवैकार्थं तुर्यतुर्यं हरिं भजे

गुरु  के यहााँ अध्ययन वाले करने शिष्य अपने गुरुसहपाठी तथा मानव मात्र का कल्याण-

चिंतन करते हुए देवताओं से प्रार्थना करते है कि:- 

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा

भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांस्तनूभिः

व्यशेम देवहितं यदायुः

स्वस्ति इन्द्रो वृद्धश्रवाः

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः

स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः

स्वस्तो नो बृहस्पतिर्दधातु

शान्तिः शान्तिः शान्तिः

क्या हम अपनी आँखों से देख सकते हैं जो शुभ है,

हम देवों द्वारा प्रदत्त इस जीवन की अवधि का आनंद लें,

अपने शरीर और सभी अंगों के द्वारा उनकी स्तुति करें!

गौरवशाली इंद्र हमें आशीर्वाद दें!

सर्वज्ञ सूर्य हम पर कृपा करें!

गरुड़, बुराई के लिए वज्र, हमें आशीर्वाद दें!

बृहस्पति हमें कल्याण प्रदान करें!

ओम! मुझमें शांति होने दो!

मेरे वातावरण में शांति हो!

मुझ पर कार्य करने वाली शक्तियों में शांति हो!

ओम! हे देवों, क्या हम अपने कानों से सुन सकते हैं, जो शुभ है;

 हे पूजा के योग्य!


Paramahamsa-Parivrajaka Upanishad
Om! O Devas, may we hear with our ears what is auspicious;
May we see with our eyes what is auspicious, O ye worthy of worship! 
May we enjoy the term of life allotted by the Devas,
Praising them with our body and limbs steady! 
May the glorious Indra bless us! 
May the all-knowing Sun bless us! 
May Garuda, the thunderbolt for evil, bless us! 
May Brihaspati grant us well-being! 
Om! Let there be Peace in me!
Let there be Peace in my environment!
Let there be Peace in the forces that act on me!

Chapter 1 When to renounce?
हरिः अथ पितामहः स्वपितरमादिनारायणमुपसमेत्य प्रणम्य पप्रच्छ भगवंस्त्वन्मुखाद्वर्णाश्रमधर्म-क्रमं सर्वं श्रुतं 

विदितमवगतम्

इदानीं परमहंसपरिव्राजकलक्षणं वेदितुमिच्छामि कः परिव्रजनाधिकारी कीदृशं परिव्राजकलक्षणं कः परमहंसः 

परिव्राजकत्वं कथं तत्सर्वं मे ब्रूहीति

होवाच भगवानादिनारायणः

1. (एक बार) पितामह (ब्रह्मा) ने अपने पिता आदि नारायण के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके पूछा-हे भगवन्

आपके श्रीमुख से सुनका वर्णाश्रम धर्म का क्रम तो मैंने पूरी तरह जान लिया है। अब मैं परमहंस परिव्राजक

के लक्षण जानने की इच्छा रखता हूँ। परिव्रजन का अधिकारी कौन है? परिव्राजक के क्या लक्षण हैं? परमहंस कौन है

परिव्राजकत्व कैसे प्राप्त होता है? यह सब मुझे बताने की कृपा करें। भगवान् आदि-नारायण ने कहा-

1. Now then the god Brahma approaching his father Adi Narayana, the supreme Being and paying obeisance asked of him: Lord, from your mouth all things pertaining to the nature of castes and orders have been heard, known and grasped. Now I wish to know the characteristics of the Paramahamsa mendicant monk. Who is entitled to renunciation? What are the characteristics of a mendicant monk? Who is a Paramahamsa monk? How is his mendicancy? (Pray) expound to me all this. The Lord Adi Narayana then replied:

2. सद्गुरुसमीपे सकलविद्यापरिश्रमज्ञो भूत्वा विद्वान्सर्व-मैहिकामुष्मिकसुखश्रमं ज्ञात्वैषणात्रयवासनात्रय-ममत्वाहङ्कारादिकं वमनान्नमिव हेयमधिगम्य मोक्ष-मार्गैकसाधनो ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेत् । गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ।
(The person entitled to renunciation) is the wise one who has undergone the difficult course of learning the sacred lores from a good preceptor; has understood all the exertion necessary for happiness in this world and the next; has understood the need to discard, as vomit, the three (primary) desires, the three primary inclinations (regard for the body, etc.,), 'mine-ness' and egotism; has completed studentship in celibacy which is the means to reach the path of liberation and has become a householder.
यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा
अथ पुनरव्रती वा व्रती वा स्नातको वाऽस्नातको वोत्सन्नाग्नि-रनग्निको वा यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेदिति बुद्ध्वा सर्वसंसारेषु विरक्तो ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो वा पितरं मातरं कलत्रपुत्रमाप्तबन्धुवर्गं तदभावे शिष्यं सहवासिनं वानुमोदयित्वा तद्धैके प्राजापत्यामेवेष्टिं कुर्वन्ति तदु तथा कुर्यात्

गृहस्थ धर्म के पालन के बाद ‘वनी’ (वानप्रस्थी) बने, तब परिव्राजक संन्यासी बने। (यह सामान्य अनुशासन है) इसके अतिरिक्त विशेष संदर्भो में किसी भी आश्रम-ब्रह्मचर्याश्रम से अथवा गृहस्थाश्रम से या वानप्रस्थाश्रम से भी प्रव्रज्या में प्रवेश कर सकता है। अतः व्रती हो या अव्रती, स्नातक हो या अन्नातक, अग्निहोत्र करने वाला हो अथवा न हो, जब भी विरक्ति उत्पन्न हो जाए, तभी संन्यास ग्रहण करके परिव्राजक हो जाना चाहिए। संसार से सभी प्रकार से विरक्त ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी अपने माता, पिता, पत्नी, पुत्र, सम्बन्धी, बन्धुओं और उनके अभाव में शिष्यों अथवा साथ में रहने वालों से सम्मति लेकर प्राजापत्य इष्टि (यज्ञ) करते हैं। उन्हें वैसा नहीं करना चाहिए।

From the stage of a householder he shall become a forest-dweller (Vanaprastha) and then renounce (worldly life). Or alternately he may renounce from the stage of a celibate student or from the stage of a house-holder or a forest-dweller. Or, whether or not he is an observer of vows, has completed his course of study, has discontinued his fire-ritual or does not maintain the sacred fire, he shall renounce that very day on which he has become disillusioned with the world.
Thus discontented with all worldly affairs, whether as a celibate student, house-holder or forest-dweller, he shall get the approval of his father, mother, wife, close kinsmen and in the absence of these, of a disciple or fellow-lodger (and then renounce the world). Some (law-givers) prescribe the sacrifice called Prajapatya (of which the god Brahma is the presiding deity, prior to a twice-born embracing renunciation). But (though thus prescribed) he may not do so.

आग्नेय्यामेव कुर्यात्
अग्निर्हि प्राणः प्राणमेवैतया करोति त्रैधातवीयामेव कुर्यात्
एतयैव त्रयो धातवो यदुत सत्त्वं रजस्तम इति
अयं ते योनिरृत्वियो यतो जातो आरोचथाः
तं जानन्नग्न आरोहाथानो वर्धया रयिमित्यनेन मन्त्रेणाग्नि-माजिघ्रेत्
एष वा अग्नेर्योनिर्यः प्राणं गच्छ स्वां योनिं गच्छस्वा-हेत्येवमेवैतदाह

आग्नेयी इष्टि ही करनी चाहिए। अग्नि ही प्राण है। इसके (अग्नि) द्वारा ही प्राण क्रिया करता है-ऐसा भाव करते हुए त्रैधातवी (इष्टि) करे। सत्त्व, रज और तम ये ही त्रिधातु हैं। इसके पश्चात् इस मंत्र से अग्नि को सूँघे ‘हे अग्निदेव ! यह प्राण आपका कारण रूप है, यह जानते हुए आप इसमें प्रवेश करें। आप प्राण से उद्भूत हैं। इसलिए आप हमें प्रकाश और वृद्धि प्रदान करें।’ हे अग्रिदेव! आप अपने योनि स्थल (प्राण ) में प्रविष्ट हों, अपने उत्पत्ति स्थल में गमन करें। ‘स्वाहा’ इस प्रकार ऐसा कहा गया है। 

'Oh Fire, this (vital breath) is your source; as you are born at the proper time (of the year) you put on effulgence. Knowing him (the Atman, your ultimate source) may you merge (with the Prana, your source). May you increase our wealth (of transcendent knowledge)'. So reciting the mantra he shall smell the fire. This is the source of fire, the vital air. May you go to the Prana, may you go to your source. Svaha. Thus alone the mantra says.

ग्रामाच्छ्रोत्रियागारादग्निमाहृत्य स्वविध्युक्तक्रमेण पूर्ववदग्निमाजिघ्रेत्

ग्राम के श्रोत्रिय के घर से अग्नि लाकर पूर्वोक्त विधि से अग्नि को सूँघे। 
Having procured the holy fire from the house of a well-versed Vedic scholar he shall smell the holy fire in the manner described previously.

यद्यातुरो वाग्निं विनेदप्सु जुहुयात्

यदि आतुरतापूर्ण भाव हो और अग्नि उपलब्ध न हो, तो जल में ही हवन करे। 
If he is afflicted (by illness) or does not get the holy fire, he shall offer the oblation in the waters.

आपो वै सर्वा देवताः सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुहोमि स्वाहेति हुत्वोद्धृत्य प्राश्नीयात् साज्यं हविरनामयम्

‘आपः’ (जल) ही समस्त देवताओं का स्वरूप है ‘समस्त देवताओं के निमित्त हवन कर रहा हैं’ ऐसा भाव करते हुए स्वाहा सहित आहुति प्रदान करे। तत्पश्चात् हवन किए हुए पदार्थ को उठाकर, घृत सहित हवि को ग्रहण (भक्षण) करे। 
For water is (presided over by) all the gods. Reciting, 'I offer the oblation to all gods, Svaha', he shall tender the oblation and picking up (a small portion of) the offered oblation which is mixed with ghee, he shall eat this, as it is beneficial.

एष विधिर्वीराध्वाने वाऽनाशके वा सम्प्रवेशे वाग्निप्रवेशे वा महाप्रस्थाने वा

इस विधि का प्रयोग वीर मार्ग में अथवा अनशन द्वारा शरीर छोड़ने के क्रम में अधवा जल प्रवेश में अथवा अग्नि प्रवेश में अथवा महाप्रस्थान में किया जाता है। 
(In the case of the Kshatriyas and others not entitled to renunciation) the rule is that they may seek liberation) in the path of the brave (by courting death in battle-field) or fast (unto death as a discipline), or enter into water (to rise no more) or enter fire or undertake the great journey (in which they collapse by exhaustion).

यद्यातुरः स्यान्मनसा वाचा वा संन्यसेदेष पन्थाः

यदि आतुरता हो, तो मन अथवा वाणी से संन्यास की विधि सम्पन्न कर लेनी चाहिए, यही मार्ग है॥

आदि नारायण ने तब उत्तर दिया:

If he were afflicted (by illness) he may renounce mentally or by speech (reciting mantras). This is the path (of their renunciation).

3. स्वस्थक्रमेणैव चेदात्मश्राद्धं विरजाहोमं कृत्वाग्नि-मात्मन्यारोप्य लौकिकवैदिकसाम्र्थ्यं स्वचतुर्दशकरण-प्रवृत्तिं पुत्रे समारोप्य तदभावे शिष्ये वा तदभावे स्वात्मन्येव वा

3. स्वस्थ क्रम से आत्मश्राद्ध एवं विरजा होम (संन्यास ग्रहण के समय किया जाने वाला यज्ञ विशेष) करके अग्नि को आत्मा में आरोपित करके अपनी लौकिक और वैदिक सामर्थ्य को तथा अपनी चतुर्दशकरण प्रवृत्ति को पुत्र में आरोपित करे। पुत्र के होने पर शिष्य में और शिष्य के अभाव में अपनी आत्मा में ही आरोपित कर दे।

A healthy person (if desiring to renounce the world) in the due order (of the stages in life) shall perform the shraddha ceremony unto himself and the fire-ritual for ridding himself of passions (Viraja-homa).
He shall infuse the ritual fire to be symbolically present in his person. His proficiency in the affairs of the world and Vedic learning as well as the fourteen means of action under his control (karanas) shall be transferred to his son (symbolically). In the absence (of a son) it shall be done to a disciple; in his absence it shall be transferred into his Atman.

ब्रह्मा त्वं यज्ञस्त्वमित्यभिमन्त्र्य ब्रह्म-भावनया ध्यात्वा सावित्रीप्रवेशपूर्वकमप्सु सर्वविद्यार्थ- स्वरूपां ब्राह्मण्याधारां वेदमातरं क्रमाद्व्याहृतिषु त्रिषु प्रविलाप्य व्याहृतित्रयमकारोकारमकारेषु प्रविलाप्य तत्सावधानेनापः प्राश्य प्रणवेन शिखामुत्कृष्य यज्ञोपवीतं छित्त्वा वस्त्रमपि भूमौ वाप्सु वा विसृज्य ॐ भूः स्वाहा भुवः स्वाहा सुवः स्वाहेत्यनेन जातरूपधरो भूत्वा स्वं रूपं ध्यायन्पुनः पृथक् प्रणवव्याहृतिपूर्वकं मनसा वचसापि संन्यस्तं मया संन्यस्तं मया संन्यस्तं मयेति मन्द्रमध्यमतारध्वनि-भिस्त्रिवारं त्रिगुणीकृतप्रेषोच्चारणं कृत्वा

इसके पश्चात् ब्रह्म त्वं यज्ञस्त्वं मंत्र का उच्चारण करके, भावनापूर्वक ब्रह्म का ध्यान करके सावित्री में प्रवेश करें तब अप्तत्त्व (जल) में समस्त विद्याओं के अर्थरूप, ब्राह्मण्य की आधाररूपा वेदमाता (गायत्री) को व्याहृतित्रय (भूः, भुवः, स्व:) में विलोन करके इन तीनों व्याहृतियों को अकार, उकार और मकार [,,म् ()] में विलीन करे। इसके पश्चात् सावधान होकर जल का पान करें। इसके बाद प्रणव () मंत्र का उच्चारण करते हुए शिखा को त्यागकर, यज्ञोपवीत को काटकर, वस्त्रों को भूमि अधवा जल में विसर्जित कर, ॐभूः स्वाहा, भुवः स्वाहा, स्वः स्वाहा, इस मन्त्र से जातरूपधर (शिशुवत् निश्छल) होकर अपने स्वरूप का ध्यान करे। फिर पृथक् प्रणव और व्याहृतिपूर्वक मन और वाणी से भी मैने संन्यास लिया, मैंने संन्यास लिया, मैंने संन्यास लिया, ऐसा मन्द्र, मध्य और तार सप्तक की ध्वनि में तीन बार आवाज थोड़ा थोड़ा बढ़ाते हुए (प्रैष) मंत्र उच्चारण करके कहे।

He shall then meditate on Brahman as identical with his Self, pronouncing the words 'Brahman Thou (Art)', 'The sacrifice thou (Art)'. The Veda-mother, the prop of Brahmanhood and embodiment of the essence of all learning shall be consigned into the waters reciting the three vyahritis (Om Bhuh, etc.,) and the three vyahritis into the letters a, u and m (of the Pranava).
He shall then ceremoniously sip water keeping his attention on that (Pranava); pull out the tuft muttering the Pranava; snap the sacred thread; discard the garment too on the ground or in the waters; become unclad reciting the mantra 'Om Bhuh Svaha, Om Bhuvah Svaha and Om Suvah Svaha'; meditate on his own form; again recite mentally or in speech the Pranava and the vyahritis separately and utter three times three the farewell words, 'I have renounced, I have renounced, I have renounced' in gentle, middling and sharp tones;

प्रणवैक- ध्यानपरायणः सन्नभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहेत्यूर्ध्व-बाहुर्भूत्वा ब्रह्माहमस्मीति तत्त्वमस्यादिवाक्यार्थस्वरूपा-नुसन्धानं कुर्वन्नुदीचिं दिशं गच्छेत्
जातरूपधरश्चरेत् एष संन्यासः

तत्पश्चात् प्रणव का ध्यान करते हुए समस्त प्राणियों को मैं अभयदान कर रहा हूँ-ऐसा भुजा उठाकर बोले कि मैं ब्रह्म हूँ (अहं ब्रह्मास्मि), ‘तुम वही (ब्रह्म) हो (तत्त्वमसि) आदि और इन्हीं महावाक्यों के अर्थ पर चिन्तन करता हुआ अपने वास्तविक स्वरूप के अनुसंधान हेतु निर्लिप्त होकर उत्तर दिशा में जाकर विचरण करेयही संन्यास (धर्म) है॥
deeply engage in meditation on the Pranava and raise his hand saying 'Freedom from fear to all from me, Svaha'. He shall then start for the north thinking over the meaning of great scriptural texts such as 'The Brahman I Am', 'That Thou Art' and proceed in the unclad state. This is renunciation.

तदधिकारी भवेद्यदि गृहस्थप्रार्थनापूर्वकमभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते सखा मा गोपायौजः सखा योऽसीन्द्रस्य व्रजोऽसि वार्गघ्नः शर्म मे भव यत्पापं तन्निवारयेत्यनेन मन्त्रेण प्रणवपूर्वकं सलक्षणं वाइणवं दण्डं कटिसूत्रं कौपीनं कमण्डलुं विवर्णवस्त्रमेकं परिगृह्य सद्गुरुमुपगम्य नत्वा गुरुमुखात्तत्त्वमसीति महावाक्यं प्रणवपूर्वकमुपलभ्याथ जीर्णवल्कलाजिनं

यदि इस विधि का अधिकारी हो- अर्थात् दिगम्बर वृत्ति अपना सके, तो दूसरी विधि कहते हैं। वह गृहस्थ प्रार्थना पूर्वक समस्त प्राणियों को अभय प्रदान करे। कहे-हे सखा ! तुम मेरे बल का रक्षण करो। तुम वृत्रासुर को मारने वाले इन्द्र के वज्र हो, मेरे लिए शान्ति प्रदायक हो, मुझे पापों से मुक्त करो, इस मन्त्र का प्रणवपूर्वक उच्चारण करके, श्रेष्ठ लक्षण युक्त (दोषमुक्त) बाँस के दण्ड, कटिसूत्र, कौपीन, कमण्डलु और एक गेरुआ वस्त्र को धारण करके सद्गुरु के निकट जाकर उन्हें प्रणाम करे और उन (गुरुदेव) से प्रणवपूर्वक तत्त्वमसि महावाक्य को प्राप्त करे (श्रवण करे)

If one is not entitled to this (way of renunciation), he shall recite first the prayer of the house-holder and then the texts 'Freedom from fear to all beings, everything emanates from me, you are my friend and you guard me.
You are the (source of) strength. You are the Vajra (weapon) of Indra which killed (the demon) Vritra. Be a blessing to me. Prevent that which is a sin'. Reciting this mantra preceded by the Pranava he shall take up the emblematic bamboo staff and water pot and wear the waist band, loin-cloth and a discolored (i.e. ochre coloured) garment; then approach a good Guru, bow to him and receive from the mouth of the Guru the great scriptural text 'That Thou Art', preceded by the Pranava. Then he shall wear a tattered garment or a bark-garment or a deer-skin;

धृत्वाथ जलावतरणमूर्ध्वगमनमेकभिक्षां परित्यज्य त्रिकालस्नानमाचरन्वेदान्तश्रवणपूर्वकं प्रणवानुष्ठानं कुर्वन्ब्रह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नः स्वाभिमतमात्मनि गोपयित्वा निर्ममोऽध्यात्मनिष्ठः कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्य-दम्भदर्पाहङ्कारासूयागर्वेच्छाद्वेषहर्षामर्ष-ममत्वादींश्च हित्वा ज्ञानवैराग्ययुक्तो वित्तस्त्रीपराङ्मुखः शुद्धमानसः सर्वोपनिषदर्थमालोच्य

इसके उपरान्त जीर्ण वल्कल अथवा मृगचर्म धारण करके जल में उतरना, ऊपर चढ़ना तथा एक ही (घर की) भिक्षा का परित्याग करके (अर्थात् कई घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर), त्रिकाल (प्रातः, मध्याह्न और सायं) स्नान के नियम का आचरण करते हुए वेदान्त दर्शन का श्रवण और प्रणव ( कार) का अनुष्ठान सम्पन्न करे। ब्रह्म मार्ग में विस्तृत (सम्यक्) ज्ञान प्राप्त करके, अपने मत (भावनाओं) को आत्मा (मन) में छिपाकर रखते हुए अपने को ममतारहित और अध्यात्मनिष्ठ बनाए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, दम्भ, दर्प, अहंकार, असूया, गर्व, इच्छा, द्वेष, हर्ष, अमर्ष, ममत्व आदि का परित्याग करके, ज्ञान वैराग्य से युङ होकर, कञ्चन और कामिनी से पराङ्मुख होकर, शुद्ध मन से समस्त उपनिषदों की समालोचना करके 

avoid a landing place at a river side (for bathing, to prevent mixing with crowds), moving up (a staircase), and getting alms from a single house. He shall bathe during the three prescribed periods, listen to an exposition of the Vedanta and practise the Pranava; be well established in the path of (realizing) Brahman; merge his favourite desire in the Atman; become free of 'mine-ness' and get established in the Self; give up passion, anger, greed, delusion, intoxication, rivalry, false pride, pride, egotism, intolerance, arrogance, desires, hatred, gloating, impetuosity, 'mine-ness', etc.; possessed of wisdom and dispassion he shall turn away from wealth and women and possessing a pure mind he shall ponder over the truths of all the Upanishads;

ब्रह्मचर्या-परिग्रहाहिंसासत्यं यत्नेन रक्षञ्जितेन्द्रियो बहिरन्तःस्नेहवर्जितः शरीरसंधारणार्थं वा त्रिषु वर्णेष्वभिशस्तपतितवर्जितेषु पशुरद्रोही भैक्ष्यमाणो ब्रह्मभूयाय भवति
सर्वेषु कालेषु लाभालाभौ समौ कृत्वा परपात्रमधूकरे-णान्नमश्नन्मेदोवृद्धिमकुर्वन्कृशीभूत्वा ब्रह्माहमस्मीति
भावयन्गुर्वर्थं ग्राममुपेत्य ध्रुवशीलोऽष्टौ मास्येकाकी चरेद्द्वावेवाचरेत्

ब्रह्मचर्यअपरिग्रहअहिंसासत्य आदि की पत्नपूर्वक रक्षा करते हुए जितेन्द्रिय बने। बाह्याभ्यन्तर से रागरहित होकर शरीर रक्षण के लिए चारों वर्णों में पतितों (अनुशासनों से गिरे हुओं) को छोड़कर किसी वर्ण के सदाचारी गृहस्थों से भी उसी प्रकार निर्वैर होकर भिक्षा ग्रहण कर ले, जैसे पशु बिना भेद-भाव के आहार ग्रहण करता है। ऐसा करने वाला सबमें ब्रह्म भाव रखता है॥

समस्त कालों में लाभ-हानि को समान मानता हुआ हाथ (करपात्र) में ही अल्प भिक्षा ग्रहण करे। शरीर मोटा करके कृशकाय होकर, मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा भाव करते हुए आठ महीने तक गुरु के निमित्त अडिग होकर भिक्षाशील होकर एकाकी विचरण करे।
guard bestowing particular care his celibacy, non-possession, universe-injuring attitude and truthfulness; conquer his senses and be free from affection externally and internally; secure alms for sustaining the body, like a harmless cow, from members of the four castes excepting those who are accursed and fallen; such a person is considered worthy of realizing Brahman.
He shall view with equanimity at gain or loss (of alms) at all times; eat food (secured as alms from many places) like a bee, using the hand as a vessel; not increase fat (but) become lean; feel that he is Brahman; approach a village for (serving the preceptor). He shall, steady in conduct, go about alone for eight months and shall not journey as two (i.e. with a companion).

यदालंबुद्धिर्भवेत्तदा कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा परमहंसो वा तत्तन्मन्त्रपूर्वकं कटिसूत्रं कौपीनं दण्डं कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेत्

जब सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो जाए, तब कुटीचक अधवा बहूदक अथवा हंस अथवा परमहंस होकर मंत्रपूर्वक कटिसूत्र, कौपीन, दण्ड और कमण्डलु आदि सभी को जल में विसर्जित करके जातरूपधर(शिशुवत् निर्लिप्त, नागा साधु बनकर) होकर विचरण करे।

When he has attained sufficient good sense (i.e. dispassion) he may become a Kutichaka or a Bahudaka or a Hamsa or a Paramahamsa ascetic. Reciting the respective mantras he shall discard in the waters his waist-band, loin-cloth, staff and water vessel and move about unclad.

ग्राम एकरात्रं तीर्थे त्रिरात्रं पत्तने पञ्चरात्रं क्षेत्रे सप्तरात्रमनिकेतः

विचरण के अन्तराल मेंग्राम में एक रात्रि, तीर्थ में तीन रात्रि, नगर में पाँच रात्रि और क्षेत्र में सात रात्रि तक निवास करता हुआ वह अनिकेत (घर रहित)
He shall stay one night in a village, three nights in a holy place, five nights in a town and seven nights in a place of pilgrimage (Kshetra). He shall be without a (fixed) abode,

स्थिरमतिरनग्निसेवी निर्विकारो नियमानियाम-मुत्सृज्य

स्थिर बुद्धि, निरग्निसेवी (अग्नि का सेवन करने वाला), निर्विकार, नियम-अनियम का परित्याग करने वाला
be steady in mind, not resort to a fire-place (for warmth), be free from emotions, discard both rituals and non-rituals,

प्राणसन्धारणार्थमयमेव लाभालाभौ समौ कृत्वा गोवृत्त्या भैक्षमाचरन्नुदकस्थलकमण्डलुर्-रबाधकरहस्यस्थलवासो

मात्र प्राण धारण के लिए गोवृत्ति से भिक्षा ग्रहण करने वाला हो। जलस्थल (जलाशय) को ही वह कमण्डलु माने और अबाध (बाधा रहित एकान्त) स्थान में ही रहे।

receive alms for sustaining life alone with equanimity at its gain or loss in the manner of a cow, has his water vessel (only) in (the form of) a watering place and his residence in a solitary place free from trouble.

पुनर्लाभालाभरतः शुभाशुभ- कर्मनिर्मूलनपरः सर्वत्र भूतलशयनः क्षौरकर्मपरित्यक्तो युक्तचातुर्मास्यव्रतनियमः शुक्लध्यानपरायणोऽर्थस्त्रीपुर पराङ्मुखोऽनुन्मत्तोऽप्युन्मत्तवदाचरन्नव्यक्तलिङ्गोऽलिङ्गोऽव्य-क्ताचारो दिवानक्तसमत्वेनास्वप्नः स्वरूपानुसन्धानब्रह्म-प्रणवध्यानमार्गेणावहितः संन्यासेन देहत्यागं करोति स परमहंसपरिव्राजको भवति

लाभ-हानि के विचार में रत हो, सर्वत्र भूतल पर शयन करे, क्षौर कर्म (हजामत को) त्याग दे। चातुर्मास्य आदि व्रतों के नियमों से मुक्त रहे और मात्र शुक्ल (सात्त्विक) ध्यान परायण रहे धन-सम्पदा, स्त्री और नगर से पराङ्मुख रहे और ज्ञान-सम्पन्न होने पर भी प्रत्यक्षतः उन्मत्त की तरह रहे। अपने लिङ्ग और आचार को अव्यक्त रहने दे। दिन और रात्रि को समान भाव से देखने के कारण वह सदैव अस्वप्न अर्थात् जाग्रत्- अवस्था में हो रहे अस्तु, जो निज स्वरूप के अनुसंधान और प्रणव के ध्यान में रत रहकर संन्यास पथ के द्वारा देह का परित्याग करता है, वह परमहंस-परिव्राजक होता है॥

He shall not think of gain or loss but be interested in rooting out both good and bad actions; sleep always on the floor; discard shaving, give up the restriction of observing chaturmasya, interest himself deeply in pure meditation, be averse to wealth, women and city (life), behave like an insane person although perfectly sane, possess no distinguishing emblems or distinctive conduct, have no dreams as day and night are the same to him and be attentive to the path of deep meditation on Brahman in the form of Pranava in investigating on the nature of the Self. He who thus gives up his body by resorting to renunciation is the Paramahamsa mendicant monk.

4. भगवन् ब्रह्मप्रणवः कीदृश इति ब्रह्मा पृच्छति
होवाच नारायणः

4. ब्रह्मा जी ने (आदि पिता नारायण से) आगे प्रश्न किया- हे भगवन्! ब्रह्म प्रणव  कैसा होता है? आदिनारायण ने कहा- 
The god Brahma asked (Narayana): Lord, what is Brahma-Pranava? (The Lord) Narayana replied:

ब्रह्मप्रणवः षोडशमात्रात्मकः सोऽवस्थाचतुष्टय-चतुष्टयगोचरः
जाग्रदवस्थायां जाग्रदादिचरस्रोऽवस्थाः स्वप्ने स्वप्नादि-चतस्रोवस्थाः सुषुप्तौ सुषुप्त्यादिचतस्रोऽवस्थातुरीये
तुरीयादिचतस्रोऽवस्था भवन्तीति

ब्रह्म प्रणव षोडशमात्रात्मक होता है। चारों अवस्थाओं में प्रत्येक की चार-चार स्थितियों के संयोग से इनकी संख्या सोलह हो जाती है। जाग्रत् अवस्था में जाग्रत् आदि चारों (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय) अवस्थाएँ, स्वप्नावस्था में स्वप्न आदि चारों (स्वप्न, जाग्रत्, सुषुप्ति, तुरीय) अवस्थाएँ, सुषुप्तावस्था में सुषुप्ति आदि चारों (सुषुप्ति, जाग्रत्, स्वप्न, तुरीय) अवस्थाएँ तथा तुरीयावस्था में तुरीय आदि चारों (तुरीय, जात्, स्वप्न, सुषुप्ति) अवस्थाएँ रहती हैं। 

The Brahma-Pranava consists of sixteen parts and it is cognized in quadruples in the four states (waking, etc.,). In the waking state there are the four states, waking within waking, etc., (jagrat-jagrat); in the dreaming state the four states are waking within dreaming, etc., (svapna-jagrat); in deep sleep there are the four states waking within deep sleep, etc., (susupti-jagrat); in the fourth state (turiya) there are the four states waking within the Turiya, etc., (turiya-jagrat).

जाग्रदवस्थायां विश्वस्य चातुर्विध्यं विश्वविश्वो विश्वतैजसो विश्वप्राज्ञो विश्वतुरीय इति

व्यष्टि जाग्रत् अवस्था में विश्व के चार स्वरूप होते हैं, विश्व-विश्व, विश्व तैजस, विश्व प्राज्ञ और विश्व तुरीय। 

In the waking state of distributive pervasion (vyashti) there is quadruplicity of vishva, namely, vishva-vishva, vishva-taijasa, vishva-prajna and vishva-turiya.

स्वप्नावस्थायां तैजसस्य चातुर्विध्यं तैजसविश्वस्तैजसतैजसस्तैजसप्राज्ञस्तैजसतुरीय इति

व्यष्टि स्वप्नावस्था में तैजस के चार रूप होते हैं-तैजस विश्व, तैजस-तैजस, तैजस प्राज्ञ और तैजस तुरीय। 

In the dreaming state of distributive pervasion there is quadruplicity of taijasa, namely taijasa-vishva, taijasa-taijasa, taijasa-prajna and taijasa-turiya.

सुषुप्त्यवस्थायां प्राज्ञस्य चातुर्विध्यं प्राज्ञविश्वः प्राज्ञतैजसः प्राज्ञप्राज्ञः प्राज्ञतुरीय इति।

इसी प्रकार सुषुप्ति अवस्था में प्राज्ञ चार प्रकार के होते हैं-प्राज्ञ विश्व, प्राज्ञ तैजस, प्राज्ञ- प्राज्ञ और प्राज्ञ तुरीय। 

In the state of deep sleep of Prajna there is quadruplicity, namely prajna-vishva, prajna-taijasa, prajna-prajna and prajna-turiya.

तुरीयावस्थायां तुरीयस्य चातुर्विध्यं तुरीयविश्वस्तुरीयतैजसस्तुरीयप्राज्ञस्तुतुरीयतुरीय इति

तुरीयावस्था में तुरीय के भी चार प्रकार होते हैं-तुरीय विश्व, तुरीय तैजस, तुरीय- तुरीय और तुरीय प्राज्ञ। 

In the fourth state (turiya) there is the quadruplicity of the turiya, namely turiya-vishva, turiya-taijasa, turiya-prajna (and turiya-turiya).

ते क्रमेण षोडशमात्रा रूढाः अकारे जाग्रद्विश्व उकारे जाग्रत्तैजसो मकारे जाग्रत्प्राज्ञ अर्धमात्रायां जाग्रत्तुरीयो
बिन्दौ स्वप्नविश्वोनादे स्वप्नतैजसः कलायां स्वप्नप्राज्ञः कलातीते स्वप्नतुरीयः शान्तौ सुषुप्तविश्वः शान्त्यातीते
सुषुप्ततैजस उन्मन्यां सुषुप्तप्राज्ञो मनोन्मन्यां सुषुप्ततुरीयः पुर्यां तुरीयविश्वो मध्यमायां तुरीयतैजसः पश्यन्तां तुरीयप्राज्ञः परायां तुरीयतुरीयः

इस प्रकार यह (ब्रह्म प्रणव) षोडशमात्रारूढ़ रहता है। अकार में जाग्रत् विश्व, उकार में जाग्रत् तैजस और मकार में जाग्रत् प्राज्ञ होता है। अर्धमात्रा में जाग्रत् तुरीय, बिन्दु में स्वप्न विश्व, नाद में स्वप्न तैजस, कला में स्वप्न प्राज्ञ और कलातीत में स्वप्न तुरीय होता है। शान्ति में सुषुप्त विश्व, शाति अतीत में सुषुप्त तैजस, उन्मनी अवस्था में सुषुप्त- प्राज्ञ और मनोन्मनी अवस्था में सुषुप्त तुरीय होता है। तुर्या (वैखरी) में तुरीव विश्व, मध्यमा में तुरीय तैजस, पश्यन्ती में तुरीय प्राज्ञ और परा में तुरीय-तुरीय होता है। इस प्रकार यह (ब्रह्म प्रणव) षोडशमात्रारूढ़ रहता है। 
These in due order make up the sixteen parts. In the letter 'a' (of the Om - Aum) there is jagrat-vishva, in the letter 'u' jagrat-taijasa, in the letter 'm' jagrat-prajna, in the ardha-matra (of Om) jagrat-turiya, in the bindu svapna-vishva, in the nada svapna-taijasa, in the kala svapna-prajna, in the kalatita svapna-turiya, in the shanti susupta-vishva, in the shantyatita susupta-taijasa, in pashyanti turiya-prajna, in para turiya-turiya.

जाग्रन्मात्राचतुष्टयमकारांशं स्वप्नमात्राचतुष्टय- मुकारांशं सुषुप्तिमात्राचतुष्टयं मकारांशं तुरीयमात्राचतुष्टयमर्धमात्रांशम्

अकार में जाग्रत् विश्व, उकार में जाग्रत् तैजस और मकार में जाग्रत् प्राज्ञ होता है। 

अर्धमात्रा में जाग्रत् तुरीयबिन्दु में स्वप्न विश्व, नाद में स्वप्न तैजस, कला में स्वप्न प्राज्ञ और कलातीत में स्वप्न तुरीय होता है। 

शान्ति में सुषुप्त विश्व, शाति अतीत में सुषुप्त तैजस, उन्मनी अवस्था में सुषुप्त- प्राज्ञ और मनोन्मनी अवस्था में सुषुप्त तुरीय होता है। तुर्या (वैखरी) में तुरी विश्व, मध्यमा में तुरीय तैजस, पश्यन्ती में तुरीय प्राज्ञ और परा में तुरीय-तुरीय होता है। 

(प्रणव ॐ के) जाग्रत् अवस्था की चार मात्राएँ अकार अंश कीस्वप्नावस्था की चार मात्राएँ उकार अंश कीसुषुप्ति अवस्था की चार मात्राएँ मकार अंश की और तुरीयावस्था की चार मात्राएँ अर्धमात्रा के अंश की है। 
The four parts of jagrat pertain to the letter 'a', the four parts of Svapna pertain to the letter 'u', the four parts of Susupti pertain to the letter 'm', the four parts of turiya pertain to the ardha-matra.

अयमेव ब्रह्मप्रणवः परमहंसतुरीयातीतावधूतैरुपास्यः
तेनैव ब्रह्म प्रकाशते तेन विदेहमुक्तिः

यही ब्रह्म प्रणव है। यह (ब्रह्मप्रणव) ही परमहंस तुरीयातीत अवधूतों द्वारा उपास्य है। इसी के द्वारा ब्रह्म प्रकाशित होता है। इसी से विदेह मुक्ति प्राप्त होती है॥

This is the Brahma-Pranava. This is to be worshipped by the Paramahamsa, Turiyatita and Avadhuta ascetics. By this Brahman is illumined. (This is) liberation in the disembodied state (Videha-mukti).

5. भगवन् कथमयज्ञोपवीत्त्यशिखी सर्वकर्मपरित्यक्तः कथं ब्रह्मनिष्ठापरः कथं ब्राह्मण इति ब्रह्मा पृच्छति

5. ब्रह्मा ने पुनः प्रश्न किया- हे भगवन्! अयज्ञोपवीती, अशिखी एवं समस्त कर्मो का परित्याग कर देने वाला ब्रह्मनिष्ठ परायण ब्राह्मण कैसे हो सकता है

Lord, how is one without the sacred thread and tuft a person who has discarded all (worldly) activities?

होवाच विष्णुर्भोभोऽर्भक यस्यास्त्यद्वैतमात्मज्ञानं तदेव यज्ञोपवीतम्

भगवान् विष्णु ने कहा- अद्वैतरूप आत्मज्ञान ही जिसका यज्ञोपवीत है 

How he is solely devoted to absorption in Brahman? How is he a Brahmana? Thus the god Brahma asked (Narayana). Lord Vishnu then replied: Oh child, he who has knowledge of the non-dual Atman has the real sacred thread (i.e. that knowledge itself is the sacred thread).

तस्य ध्याननिष्ठैव शिखा तत्कर्म पवित्रम्

और ध्यान निष्ठा ही जिसकी शिखा है, वह अपने सत्कर्म से पवित्र हो जाता है। 

His deep absorption in meditation is itself the tuft.
This activity is (itself) the possession of the sanctifying ring of holy grass (pavitra).

सर्वकर्मकृत् ब्राह्मणः ब्रह्मनिष्ठापरः

सम्पूर्ण कार्मो को वह कर चुका है। वह ब्राह्मण है, वह ब्रह्मनिष्ठ परायण है

He does all actions, he is the Brahmana, he is deeply absorbed in Brahman,

देवः ऋषिः तपस्वी श्रेष्ठः

वह देव है, वह ऋषि है, वह तपस्यी है, वह श्रेष्ठ है, 

he is the illumined being (deva), he is the sage, he practices penance, he is the noblest,

एव सर्वज्येष्ठः एव जगद्गुरुः एवाहं विद्धि

सर्वज्येष्ठ एवं जगद्गुरु है, वह मैं ही हूँ, ऐसा जानना चाहिए। 


He is superior (Elder) to all; he is teacher to the universe, know that he is I.

लोके परमहंसपरिव्राजको दुर्लभतरो यद्येकोऽस्ति

इस लोक में परमहंस परिव्राजक दुर्लभ है। 

In this world very rare is the mendicant monk who is a Paramahamsa.

एव नित्यपूतः एव वेदपुरुषो महापुरुषो यस्तच्चित्तं मय्येवावतिष्ठते

यदि कोई एकाध (परमहंस) होता है, तो वह नित्यपावन और वेद पुरुष है। वह महापुरुष जिसका चित मुझमे ही अवस्थित रहता है


If there is one he is ever pure, he alone is the Purusha (glorified) in the Veda. He who is a great man (maha-purusha) has his mind resting in me.

 अहं तस्मिन्नेवावस्थितः

मैं उसमें अवस्थित रहता हूँ। 

I too remain in him alone.

एव नित्यतृप्तः शीतोष्णसुखदुःखमानावमानवर्जितः

वही नित्य तृप्त होता है। वह सर्दी-गर्मी, मान-अपमान और सुख दुःख से रहित होता है। 

He is the ever-satisfied. He is free from the (effects of) cold and heat, happiness and misery, honour and dishonour.

निन्दामर्षसहिष्णुः षडूर्मिवर्जितः

यह निन्दा और क्रोध को सहन कर लेने वाला होता है तथा षड्ऊर्मियों से रहित होता है। 

He Puts up with insult and anger. He is devoid of the six waves, or six  human infirmities (hunger and thirst, grief, and delusion, old age (or decay) and death), 

षड्भावविकारशून्यः ज्येष्ठाज्येष्ठव्यवधानरहितः

उसकी दृष्टि में बड़े-छोटे का कोई भेद नहीं रहता अर्थात् वह सबके प्रति समान दृष्टि रखता है। 

and is free from the six properties (of the body, birth, existence, change, growth, decay and death). He is without the intervention of (i.e. he is not circumscribed by) the state of elderliness or otherwise.

स्वव्यतिरेकेण नान्यद्रष्टा

वह (सर्वत्र) अपने आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता। 


Excepting the Self he sees nothing else.

The nature of Paramahamsa Parivrajaka
आशाम्बरो ननमस्कारो न स्वाहाकारो स्वधाकारश्च नविसर्जनपरो निन्दास्तुति-व्यतिरिक्तो नमन्त्रतन्त्रोपासको देवान्तरध्यानशून्यो

दिशाएँ ही उसके वस्त्र हैं। वह नमस्कार, स्वाहाकार, स्वधाकार और विसर्जन कुछ भी नहीं करता है। वह निन्दा- स्तुति से परे होता है। वह मन्त्र-तन्त्र की उपासना भी नहीं करता। वह किसी अन्य देव का भी ध्यान नहीं करता। 


Unclad (lit. clothed by the points of the compass), bowing to none, not uttering Svaha (as he worships no gods), not uttering Svadha (to propitiate the manes), without the need to send back (gods as they have not been invoked), free from blame and praise, not resorting to mantras and rituals, not meditating on other gods (than the supreme God),

लक्ष्यालक्ष्यनिवर्तकः सर्वोपरतः ससच्चिदानन्दाद्वय-चिद्घनः सम्पूर्णानन्दैकबोधो ब्रह्मैवाहममीत्यनवरतं ब्रह्मप्रणवानुसन्धानेन यः कृतकृत्यो भवति ह परमहंसपरिव्राडित्युपनिषत्

वह लक्ष्य अलक्ष्य से रहित होता है। वह सभी से उपरत रहता है। वह सच्चिदानन्द, अद्वैत, चिद्घन और सम्पूर्ण आनन्द के बोधवाला ‘मै ब्रह्म हूँ' ऐसी अनवरत भावना रखने वाला है। जो ब्रह्म प्रणय के अनुसंधान से कृतकृत्य हो जाता है, उसे ही परमहंस परिव्राजक कहते हैं, ऐसा इस उपनिषद् का मत है॥

refraining from aims and their absence, with all activities ceased, firmly established in Consciousness consisting of Existence, Knowledge and Bliss, being conscious of the one supreme bliss, he ever meditates on the Brahma-Pranava (to the effect) that he is Brahman alone and thus fulfils himself; such a one is the Paramahamsa mendicant monk. Thus (ends) the Upanishad.

हरिः तत्सत्
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांस्तनूभिः
व्यशेम देवहितं यदायुः
स्वस्ति इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु

शान्तिः शान्तिः शान्तिः

इति अथर्ववेदान्तर्गता परमहंसपरिव्राजकोपनिषत्समाप्ता
Om! O Devas, may we hear with our ears what is auspicious;
May we see with our eyes what is auspicious, O ye worthy of worship!
May we enjoy the term of life allotted by the Devas,
Praising them with our body and limbs steady!
May the glorious Indra bless us!
May the all-knowing Sun bless us!
May Garuda, the thunderbolt for evil, bless us!
May Brihaspati grant us well-being!

Om! Let there be Peace in me!
Let there be Peace in my environment!
Let there be Peace in the forces that act on me!


Here ends the Paramahamsa-Parivrajakopanishad, included in the Atharva-Veda.

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[अन्तरंग यज्ञोपवीत और अतरंग शिखा का विस्तार से उल्लेख ‘परब्रह्योपनिषद्’ में किया गया है।]


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