अष्टगन्ध में कस्तूरी सर्वाधिक मूल्यवान
और महत्त्वपूर्ण पदार्थ है। आयुर्वेद, कर्मकांड, और तन्त्र में इसका विशेष प्रयोग होता
है, किन्तु सुलभ प्राप्य नहीं होने के कारण नकल का व्यापार भी व्यापक है। उपलब्धि-स्रोत
के विचार से कस्तूरी तीन प्रकार का होता है-
1. मृगा कस्तूरी- जैसा कि नाम से ही
स्पष्ट है- मृग के शरीर से प्राप्त होने वाला यह एक जांगम द्रव्य है। ध्यातव्य है कि
यह सभी मृगों में नहीं पाया जाता, प्रत्युत एक विशेष जाति के मृगों में ही पाया जाता
है। उन विशिष्ट मृगों में भी सभी में हो ही- यह आवश्यक नहीं। इस प्रकार, विशिष्ट में
भी विशिष्ट की श्रेणी में है। मृग की नाभि में एक विशेष प्रकार का अन्तःस्राव क्रमशः
एकत्र होने लगता है, जिसका सुगन्ध धीरे-धीरे बाहर भी प्रस्फुटित होने लगता है। यहां
तक कि उस सुगन्ध की अनुभूति उस अभागे मृग को होती तो है, किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं
होता कि सुगन्ध का स्रोत क्या है। उसे वह कोई बाहरी सुगन्ध समझ कर, उसकी खोज में इधर-उधर
अति व्यग्र होकर भटकता है, और, यहां तक कि व्यग्रता में दौड़ लगाते-लगाते मूर्छित होकर
गिर पड़ता है। प्रायः उस अवस्था में उसकी मृत्यु भी हो जाती है। "कस्तूरी कुण्डली
बसे, मृग ढूढे वन माहीं..." की उक्ति इस बात का उदाहरण है। मृत मृग की नाभि को
काट कर उससे वह गांठ प्राप्त कर लिया जाता है। ऊपर के चर्म-कवच को काट कर भीतर भरे
कस्तूरी (महीन रवादार पदार्थ) को निकाल लिया जाता है। धन-लोलुप शिकारी (वनजारे) सुगन्ध
के आभास से मृगों का टोह लेते रहते हैं, और उन्हें मार कर नाभि निकाल लेते हैं। वैसे
भी नाभि-ग्रन्थि के काट लेने पर किसी प्राणी का बचना असम्भव है। आजकल इन मृगों की प्रजाति
लगभग नष्ट की स्थिति में है। भेड़-बकरे की नाभि को काटकर, उसमें कृत्रिम सुगन्धित पदार्थ
भर कर धड़ल्ले से नकली कस्तूरी का व्यापार होता है। अनजाने लोग ठगी के शिकार होते हैं,
और द्रव्य-शुद्धि के अभाव में साधित क्रिया फलदायी नहीं होने पर साधक के साथ-साथ तन्त्रशास्त्र
की भी बदनामी होती है|
2. विडाल कस्तूरी- नाम से ही स्पष्ट
है- कस्तूरी विडाल (बिल्ली) (Civet Cat) के शरीर से प्राप्त होने वाला एक जांगम द्रव्य।
वस्तुतः नरविलाव (Civet Cat) के अण्डकोश में एकत्र एक विशेष प्रकार का अन्तःस्राव
(शुक्रकीटों के पोषणार्थ निर्मित) घनीभूत होकर एक सुगन्धित पदार्थ का सृजन करता है,
जो काफी हद तक मृगाकस्तूरी से गुण-धर्म-साम्य रखता है। यह प्रायः नरविडाल (Civet
Cat) के अण्डकोश से प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार प्राप्ति का सबसे सुलभ और सस्ता
स्रोत है। अरबी विद्वानों ने इसे ज़ुन्दवदस्तर नाम दिया है। हकीमी दवाइयों में इसका
काफी उपयोग होता है। तन्त्र शास्त्र में जहां कहीं भी कस्तूरी की चर्चा है, मुख्य रूप
से मृगाकस्तूरी ही प्रयुक्त होता है। पवित्र जांगम द्रव्यों में वही मर्यादित है सिर्फ,
न कि विडाल कस्तूरी। वैसे तामसिक तन्त्र साधक इसका प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं, और
लाभ भी होता है, किन्तु सात्विक साधकों के लिए यह सर्वदा वर्जित है।
3. लता कस्तूरी-
यह एक वानस्पतिक द्रव्य है, जिसे किंचित
गुण-धर्म के कारण कस्तूरी की संज्ञा दी गयी है। वैसे नाम है लता कस्तूरी, किन्तु इसका
पौधा, फूल,पत्तियां सबकुछ भिण्डी (रामतुरई) के समान होता है, बल्कि उससे भी थोड़ा बड़ा
ही। फल की बनावट भी भिण्डी जैसी ही होती होती है, परन्तु विलकुल ठिगना ही रह जाता है-
लम्बाई में विकास न होकर, सिर्फ मोटाई में विकास होता है, और फल लगने के दो-चार दिनों
में ही पुष्ट (कड़ा) हो जाता है। पुष्ट होने से पहले यदि तोड़ लिया जाय तो ठीक भिण्डी
की तरह ही सब्जी बनायी जा सकती है। वैसे सब्जी की तुलना में इसका भुजिया अधिक अच्छा
होता है। प्रत्येक पौधे में फल की मात्रा भी भिण्डी की तुलना में काफी अधिक होता है।
इसकी एक और विशेषता है कि यह बहुवर्षायु वनस्पति है। छोड़ देने पर काफी बड़ा (अमरुद,
अनार जैसा) हो जाता है, और लागातार बारहों महीने फल देते रहता है। एक बात का ध्यान
रखना पड़ता है कि हर वर्ष कार्तिक से फाल्गुन महीने के बीच सुविधानुसार यदि थोड़ी छंटाई
कर दी जाय तो नये डंठल निकल कर पौधे का सम्यक् विकास होकर फल की गुणवत्ता में वृद्धि
होती है। खेती की दृष्टि से यदि रोपण करना हो तो हर तीसरे वर्ष नये बीज डाल देने चाहिए।
मैंने अपनी गृहवाटिका में इसे लगाकर काफी उपयोग किया है। इसका फल बहुत ही पौष्टिक होता
है। पौष्टिकता में जड़ों की भी अपनी विशेषता है। इसे सुखा कर चूर्ण बनाकर, एक-एक चम्मच
प्रातः-सायं मधु के साथ सेवन करने से बल-वीर्य की वृद्धि होती है। पुष्ट-परिपक्व फलों
से प्राप्त बीजों को चूर्ण कर कस्तूरी की तरह उपयोग किया जा सकता है, जो किंचित सुगन्ध
युक्त होता है। गुण-धर्म में मृगाकस्तूरी जैसा तो नहीं,फिर भी काफी हद कर कारगर है।
आयुर्वेद में स्थिति के अनुसार उक्त
तीनों प्रकार के कस्तूरी का उपयोग किया जाता है। कर्मकाण्ड और तन्त्र में मुख्य घटक
के साथ-साथ "योगवाही" रुप में भी प्रयुक्त होता है। कस्तूरी में सम्मोहन
और स्तम्भन शक्ति अद्भुत रुप में विद्यमान है, चाहे वह शरीर के वीर्य (शुक्र) का स्तम्भन
हो या कि बाहरी (शत्रु,शस्त्रादि) स्तम्भन। यह एक विकट रुप से उत्तेजक द्रव्य भी है।
शरीर में ऊष्मा के संतुलन में भी इसका महद् योगदान है। कस्तूरी अष्टगन्ध का एक प्रमुख
घटक है। इसके बिना अष्टगन्ध की कल्पना ही व्यर्थ है। साधित कस्तूरी के तिलक प्रयोग
से संकल्पानुसार षट्कर्मों की सम्यक् सिद्धि होती है। अन्य आवश्यक द्रव्य मिश्रित कर
दिये जायें, फिर कहना ही क्या। सौभाग्य से असली कस्तूरी प्राप्त हो जाय तो सोने या
चांदी की डिबिया में रख कर पंचोपचार पूजन करने के बाद श्री शिवपंचाक्षर, और देवी नवार्ण
मन्त्रों का एक-एक हजार जप (दशांश होमादि सहित) सम्पन्न करके डिबिया को सुरक्षित रख
लें। इसे लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। प्रयोग की मात्रा बहुत ही कम होती
है- सूई के नोक पर जितना आ सके- एक बार के उपयोग के लिए काफी है। जैसा कि ऊपर भी कह
आये हैं- सात्विक साधक सिर्फ मृगाकस्तूरी का ही प्रयोग करें। अभाव में आठ गुणा बल
(साधना) देकर लता कस्तूरी का प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु विडालकस्तूरी (जुन्दवदस्तर)
का प्रयोग कदापि न करें।
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