जांगम द्रव्यों में श्रृगालश्रृंगी
एक अद्भुत और अलभ्य पदार्थ है। सियार के सभी पर्यायवाची शब्दों- जम्बुक, गीदड़ आदि
से जोड़कर इसके भी पर्याय प्रचलित हैं; किन्तु सियारसिंगी सर्वाधिक प्रचलित नाम है।
आमलोग तो इसके होने पर ही संदेह व्यक्त करते हैं- कुत्ते-सियार के भी कहीं सींग होते
हैं? किन्तु तन्त्र शास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी जानता है कि सियारसिंगी
कितना महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक वस्तु है। शहरी सभ्यता और पश्चिमीकरण ने नयी पीढ़ी के
लिए बहुत सी चीजें अलभ्य बना दी हैं। बहुत सी जानकारियां अब मात्र किताबों तक ही सिमट
कर रह गयी हैं, अपना अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान अति संकीर्ण हो गया है। चांद और मंगल
की बातें भले कर लें, जमीनी अनुभव के लिए भी "विकीपीडिया" तलाशना पड़ता है।
बहुत लोगों ने तो सियार देखा भी नहीं
होगा। चिड़ियाघर में शेर की तरह इन बेचारों को स्थान भी शायद ही मिला हो, फिर शहरी
बच्चे देखें तो कहां? सियार काफी हद तक कुत्ते से मिलता-जुलता प्राणी है, किन्तु कुत्ते
से स्वभाव में काफी भिन्न।एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर गुरगुरायेगा, क्यों कि उसमें
थोड़ी वादशाहियत है, शेखी है। कुत्ता बहुत समूह में रहना पसन्द नहीं करता, जब कि सियार
बिना समूह के रह ही नहीं सकता। उसकी पूरी जीवन-चर्या ही सामूहिक है। देहात से जुड़े
लोगों को सियार का समूहगान सुनने का अवसर अवश्य मिला होगा। वन्य-झाड़ियों में माँद
(छोटा खोहनुमा) बनाकर ये रहते हैं। दिन में प्रायः छिपे रहते हैं, और शाम होते ही बाहर
निकल कर "हुआ...हुआ" का कर्कस कोलाहल शुरु कर देते हैं। सियारों के इस समूह
में ही एक विशेष प्रकार का नर सियार होता जो सामान्य सियारों से थोड़ा हट्ठा-कट्ठा
होता है। अपने समूह में इसकी पहचान मुखिया की तरह होती है, आहार-विहार-व्यवहार भी वैसा
ही। फलतः डील-डौल में विशिष्ट होना स्वाभाविक है। अन्य सियारों की तुलना में यह थोड़ा
आलसी भी होता है- बैठे भोजन मिल जाय तो आलसी होने में आश्चर्य ही क्या?खास कर रात्रि
के प्रथम प्रहर में यह अपने माँद से निकलता है। विशेष रुप से कर्कस संकेत-ध्वनि करता
है, जिसे सुनते ही आसपास के मांदों में छिपे अन्य सियार भी बाहर आ जाते हैं, और थोड़ी
देर तक सामूहिक गान करते हैं- वस्तुतः भोजन की तलाश में निकलने की उनकी योजना, और आह्वानगीत
है यह। सामूहिक गायन समाप्त होने के बाद सभी सियार अपने-अपने गन्तव्य पर दो-चार की
टोली में निकल पड़ते हैं, किन्तु यह महन्थ (मुखिया) यथास्थान पूर्ववत हुँकार भरते ही
रह जाता है। यहां तक कि प्रायः मूर्छित होकर गिर पड़ता है।
इसी महन्थ के सिर पर (दोनों कानों
के बीच) एक विशिष्ट जटा सी होती है, जिसे सियारसिंगी कहते हैं। गोल गांठ को ठीक से
टटोलने पर उसमें एक छोटी कील जैसी नोक मिलेगी, जो असलियत की पहचान है। भेंड़-बकरे की
नाभी भी कुछ-कुछ वैसी ही होती है, पर उसके अन्दर यह नोकदार भाग नहीं होता। जानकार शिकारी
वैसे समय में घात लगाये बैठे रहते हैं- पास के झुरमुटों में कि कब वह मूर्छित हो। जैसे
ही मौका मिलता है, झटके से उसकी जटा उखाड़ लेते हैं। चारों ओर से रोयें से घिरा गहरे
भूरे (कुछ छींटेदार) रंग का,करीब एक ईंच व्यास का गोल गांठ – देखने में बड़ा ही सुन्दर
लगता है। एक सींग का वजन करीब पच्चीस से पचास ग्राम तक हो सकता है। तान्त्रिक सामग्री
बेचने वाले मनमाने कीमत में इसे बेचते हैं। वैसे पांच सौ रुपये तक भी असली सियारसिंगी
मिल जाय तो लेने में कोई हर्ज नहीं। ध्यातव्य है कि ठगी के बाजार में सौ-पचास रुपये
में भी नकली सियारसिंगी काफी मात्रा में मिल जायेगा। रोयें, रेशे, वजन, सब कुछ बिलकुल
असली जैसा होगा, असली वाला दुर्गन्ध भी होगा, सुगन्ध भी। वस्तुतः सियार की चमड़ी में
लपेट कर सुलेसन से गांठदार बनाया हुआ, मिट्टी-पत्थर भरा होगा। कस्तूरी और सियारसिंगी
के नाम से आसानी से बाजार में बिक जाता है। सच्चाई ये है कि कस्तूरी तो और भी दुर्लभ
वस्तु है, जो मूलतः, मृग की नाभि से प्राप्त होता है। अतः धोखे से सावधान।
असली सियारसिगीं जब कभी भी प्राप्त
हो जाय, उसे सुरक्षित रख दें, और शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा करें। वैसे अन्य नवरात्रों
में भी साधा जा सकता है। गंगाजल से सामान्य शोधन करने के पश्चात् नवीन पीले वस्त्र
का आसन देकर यथोपलब्ध पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करें।तत्पश्चात् श्रीशिवपंचाक्षर एवं
देवी नवार्ण मन्त्रों का कम से कम एक-एक हजार जप कर लें। इतने से ही आपका सियारसिंगी
प्रयोग-योग्य हो गया। प्रयोग के नाम पर तो "बहुत और व्यापक" शब्द लगा हुआ
है, किन्तु गिनने पर कुछ खास मिलता नहीं। बस एक ही मूल प्रयोग की पुनरावृत्ति होती
है। सियारसिंगी बहुत ही शक्ति और प्रभाव वाली वस्तु है। पूजन-साधन के बाद इसे एक डिबिया
में (चांदी की हो तो अति उत्तम) सुरक्षित रख देना चाहिये। रखने का तरीका है कि डिबिया
में पीला कपड़ा बिछा दे। उसमें सिन्दूर भर दें, और साधित सियारसिंगी को स्थापित करके,
पुनः ऊपर से सिन्दूर भर दें। नित्य पंचोपचार पूजन किया करें। पूजन में सिन्दूर अवश्य
रहे। इस प्रकार सियारसिगीं सदा जागृत रहेगा। जहां भी रहेगा, वास्तुदोष, ग्रहदोष आदि
को स्वयमेव नष्ट करता रहेगा। किसी प्रकार की विघ्न-वाधाओं से सदा रक्षा करता रहेगा।
सियारसिंगी के उस डिबिया से निकाल कर थोड़ा सा सिन्दुर अपेक्षित व्यक्ति को अपेक्षित
उद्देश्य (तन्त्र के षटकर्म) से दे दिया जाय तो अचूक निशाने की तरह कार्य सिद्ध करेगा-
यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। प्रयोग करते समय चुटकी में उस खास सिन्दूर को लेकर
बस पांच बार पूर्व साधित दोनों मंत्रों का मानसिक उच्चारण भर कर लेना है- प्रयोग के
उद्देश्य और प्रयुक्त के नामोच्चारण के साथ-साथ। किन्तु ध्यान रहे- इस दुर्निवार वस्तु
का दुरुपयोग बिना सोचे समझे(नादानी और स्वार्थवश) न कर दे, अन्यथा एक ओर तो कार्य-सिद्धि
नहीं होती और दूसरी ओर वह साधित सियारसिंगी सदा के निर्बीज (शक्तिहीन) हो जायेगी। शक्तिहीनता
का पहचान है कि उसमें से अजीब सा दुर्गन्ध निकलने लगेगा-
सड़े मांस की तरह, जब कि पहले उस साधित
सियारसिंगी में एक आकर्षक मदकारी-मोदकारी सुगन्ध निकला करता था- देवी-मन्दिरों के गर्भगृह
जैसा सुगन्ध। अतः सावधान- स्वार्थ के वशीभूत न हों।
प्रसंगवश यहां एक बात और स्पष्ट कर
दूं कि सियारसिंगी की साधना में जो सिन्दूर प्रयोग किया जाय वह असली सिन्दूर ही हो,क्यों
कि आजकल कृत्रिम पदार्थों से तरह-तरह के सस्ते और महंगे सिन्दूर बनने लगे हैं,जो शोभा
की दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण हों,किन्तु पूजा-साधना में उनका कोई महत्व नहीं है।
नकली सिन्दूर के प्रयोग से साधना निष्फल होगी- इसमें जरा भी संदेह नहीं।
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