फिटकिरी एक सुपरिचित स्थावर द्रव्य
है, सुलभ और सस्ता भी।इसका शास्त्रीय नाम कांक्षी है। रक्त-रोधन, रक्त-शोधन, व्रण-रोपण
आदि में इसका प्रचुर प्रयोग होता है। दाढ़ी बनाने के बाद फिटकिरी को पानी में डुबोकर
चेहरे पर रगड़ने में नाई बड़ी फुर्ती दिखाता है- क्यों कि कटे भाग पर कुछ विशेष जलन
पैदा करता है। आयुर्वेद और होमियोपैथी में इसके औषधीय प्रयोग से लोग अवगत हैं। यहां
कुछ अन्य लोकोपयोगी प्रयोगों की चर्चा की जा रही है-
Ø किसी भी रविवार को फिटकिरी का बड़ा
टुकड़ा (सवा किलो करीब-एक ही खण्ड) खरीद कर लायें, और जल से शुद्ध कर नवीन लाल वस्त्र
का आसन देकर पीठिका पर रख दें। फिर पंचोपचार पूजन करने के बाद सूर्य पंचाक्षर मंत्र
से आरम्भ कर क्रमशः केतु पंचाक्षर मंत्र तक (ग्रहों के सही क्रम में) एक-एक हजार जप
कर लें। जप के बाद सुविधानुसार कुछ संख्या में तिलादि साकल्य से होम भी अवश्य करें।
इस प्रकार साधित कांक्षी को उसी लाल टकड़े में बांध कर वास्तुदोष प्रभावित क्षेत्र
में लटका दें। हो सके तो वास्तुमण्डल के मध्य खण्ड में इस भांति लटकावें ताकि हवा के
हल्के झोंके में भी दोलायमान हो। दोलन इसकी गुणवत्ता में वृद्धि करता है। थोड़े ही
दिनों में आसपास के समस्त वास्तुदोषों को आत्मसात कर लेगा। तीन से छः माह बाद उसे सम्मान
पूर्वक उतार कर वस्त्र सहित कहीं जाकर जल में विसर्जित कर दें, और घर आकर किसी योग्य
वास्तुशास्त्री से वास्तुवन्धन करा लें। एक बार की यह क्रिया दस-बारह वर्षों तक कारगर
रहेगी, वशर्ते कि भवन में कोई विशेष वास्तुदोष जाने-अनजाने पैदा न कर दिया जाय। जैसे
कि, किसी ने ब्रह्म स्थान को ही छेड़ दिया, दूषित कर दिया, नैऋत्य में गड्ढा खोद दिया,
ईशान में अग्नि स्थापित कर दिया- इस प्रकार सीधे पंचतत्वों को छेड़ दिया गया, वैसी
स्थिति में आपका पूर्व बन्धन स्वयमेव शिथिल-खण्डित हो जायेगा।
Ø सामान्य रुप से साधित करके छोटे
(सौ-दो सौ ग्राम) के टुकडें को भी घर के किसी भाग में रखने से आसपास के वास्तुदोषों
का निवारण होता है।
Ø फिटकिरी को सीधे गरम तवे पर डाल
दें। थोड़ी देर में पिघलने लगेगा, और कुछ देर छोड़ देने पर हल्के लावे की तरह हो जायेगा,
मानों मकई का लावा हो। अब उसे उतार कर सहेज लें। यह क्रिया किसी सोमवार को स्नानादि
शुद्धि के बाद करें। लावा तैयार हो जाने के बाद कांसे के कटोरे में रख कर पंचोपचार
पूजन और कम से कम एक हजार श्री शिवपंचाक्षर मंत्र का जप कर लें। इस प्रकार साधित कांक्षी-भस्म
की रत्तीभर (१२५ मि.ग्रा.) मात्रा नित्य प्रातः-सायं मधु के साथ, तीन महीने तक सेवन
करने से स्त्रियों का प्रदररोग समूल नष्ट होता है।
Ø उक्त विधि से वनायी गयी कांक्षी
भस्म को विभिन्न जीर्ण-ज्वरों में भी सेवन किया जा सकता है। साथ में गिलोय-सत्व मिलाकर
सेवन करने से लाभ अधिक और शीघ्र होगा।
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