Saturday, May 27, 2017

विराज गौ

गौ अर्थात् गमनशील या चलायमान

ज्यातिष्टोम में तम का त्याग या होम करना होता है, भूः स्वाहा
गोष्टोम में जडता का त्याग करना पडता है, भुवः स्वाहा
आयुष्टोम में भेदभाव का त्याग करना पडता है, स्वः स्वाहा
महामाया या षडरिपु के बाहर रहने वाले को इंद्रियजित् या जिन् या गौ कहा जाता है|
महामाया या गायत्री को गौ माना गया है|
गो का शब्दार्थ गं धातु के आधार पर इस प्रकार किया जाता है कि इनके द्वारा विषयों का ज्ञान होता है ( गम्यते विषयान् अनेन इति ) ।
गौः इति पृथिव्या नामधेयम्। 
वैदिक साहित्य में सूर्य की रश्मियों, पृथिवी, वाक् आदि को गो कहा गया है ।
इन्द्रियों को भी गो कहा जाता है ।
पृथिवी सूर्य की किरणों का ग्रहण करती है, अतः इस कारण उसे गो कहा जा सकता है ।
लेकिन यहां एक मूल तथ्य को समझ लेना होगा ।
एक सूर्य है, एक उसकी किरणें । दोनों अलग अलग हैं |
बाह्य जगत में तो यह समझना बहुत सरल है ।
लेकिन जब हम अध्यात्म में प्रवेश करते हैं तो वहां सूर्य को उदित करना कोई सरल कार्य नहीं है ।
छान्दोग्य उपनिषद २.१४.१ व २.१८.१ की तुलना करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि अध्यात्म में सूर्य के उदय होने से पूर्व की अवस्था का नाम अजा है ।
सूर्य के उदित होने की अवस्था का नाम अवि है ।
मध्याह्न की अवस्था का नाम गौ है ।
अपराह्न की अवस्था का नाम अश्व और सूर्यास्त की अवस्था का नाम पुरुष है ।
इस निष्कर्ष की पहली ३ अवस्थाओं - अजा, अवि व गौ की पुष्टि वैदिक संदर्भों द्वारा होती है ।
शेष २ - अश्व व पुरुष के बारे में स्थिति अन्वेषणीय है ।
वैदिक साहित्य में अजा को तापन तक सीमित रखा गया है ।
बहुत से साधकों को अपने ध्यान में गर्मी का अनुभव होता है, पसीने छूट जाते हैं ।
ऐसी स्थिति अजा के अन्तर्गत आती है ।,
उसके पश्चात् सूर्योदय की अवस्था आती है जहां लगता है कि मुख से प्रकाश निकल कर फैल रहा है । ऐसी स्थिति को अवि के अन्तर्गत रखा गया है । अवि को लोमशा कहा गया है - बालों वाली और अवि के इन लोमों का उपयोग सोम छानने में किया जाता है ।
इसके पश्चात् गौ की अवस्था आती है जब अपने अन्दर के सूर्य की किरणें निकलकर चारों ओर तापन करती हैं, वैसे ही जैसे बाहर के सूर्य की । इसे वैदिक साहित्य में सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है । अश्व के संदर्भ में कहा गया है कि सूर्य अश्व बन कर आकाश में गति करता है । इस अवस्था की व्याख्या अपेक्षित है ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है ( ऐतरेय ब्राह्मण २.८, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.१.२.४ आदि ) कि देवों ने पुरुष रूप पशु का आलभन/वध किया ।
उसका मेध निकल कर अश्व में प्रवेश कर गया ।
अश्व का आलभन करने पर उसका मेध गौ में प्रवेश कर गया ।
गौ का आलभन करने पर उसका मेध अवि में प्रवेश कर गया, अवि का अजा में, अजा का पृथिवी में और पृथिवी का मेध व्रीहि और यव बना ।
इसी कारण से यज्ञ में पुरोडाश निर्माण हेतु व्रीहि का प्रयोग किया जाता है ।
जैमिनीय ब्राह्मण २.३४ में पृष्ठ्य षडह नामक यज्ञ के संदर्भ में गौ को रथन्तर, अश्व को बृहत्, अजा को वैरूप, अवि को वैराज, व्रीहि को शक्वरी तथा यव को रैवत कहा गया है ।
इस भूमिका के पश्चात् अब हम इस लेख के मूल विषय पर ध्यान देते हैं कि भारतीय साहित्य में क्षुधा की तृप्ति हेतु गौ के भक्षण का क्या अर्थ है ।
ऋग्वेद १०.४२.१०, १०.४३.१०, १०.४४.१० की ऋचाओं का कथन है कि गायों/गोभि: द्वारा हम अमति को पार करे और यव द्वारा सारी क्षुधा को पार करे ।
अथर्ववेद ७.५२.७, २०.८९.१० व २०.९४.१० में भी इसी मन्त्र की पुनरुक्ति की गई है ।
यह पुनरुक्ति संकेत करती है कि यह मन्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
यह मन्त्र यव द्वारा क्षुधा की तृप्ति का निर्देश करता है, गौ द्वारा नहीं ।
गौ द्वारा अमति का नाश करके प्रमति को प्राप्त किया जाता है, उच्चतर चेतना के स्तर को प्राप्त किया जाता है, अतिमानसिक स्तर की प्राप्ति की जाती है ।
यव और व्रीहि उत्क्रान्त मेध के निकृष्टतम भाग हैं ।
एक मन्त्र में यव को वरुण्य, वरुण देवता का भाग कहा गया है ।
वरुण मर्त्य स्तर का देवता है । वह पापों को पाशों से बांधता है ।
हम सब अपनी क्षुधा की तृप्ति यव द्वारा , गोधूम द्वारा ही करते हैं ।
यव या गोधूम की उत्पत्ति भी सूर्य की किरणों से ही होती है ।
यहां यह अन्तर्निहित है कि या तो हम सूर्य की किरणों से गौ का निर्माण कर लें या यव का ।
यदि यव का निर्माण करते हैं तो वह गौ का वध कहलाएगा ।
ऋग्वेद १.२३.१५, ५.२.५ आदि में गो/किरणों द्वारा यवन का उल्लेख आता है ।
डा. फतहसिंह का मत है कि यव बीच में से जुडा होता है ।
इसी प्रकार यदि मनुष्य के ६ निचले कोश सातवें उच्चतम कोश से जुड जाएं तो वह यव बन जाता है ।
ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में गायों द्वारा यव के पीछे भागने के उल्लेख आते हैं ।
साधारण अर्थ में तो हम सभी जानते हैं कि गौ पशु को यव या गोधूम कितने प्रिय हैं ।
लेकिन ऋचाएं संकेत करती हैं कि इनमें गहरे निहितार्थ छिपे हैं ।
ऐसा लगता है कि यव की व्याख्या वैदिक साहित्य में आयु द्वारा की गई है ।
जैमिनीय ब्राह्मण २.४४२ का कथन है कि आयु द्वारा अयुवत, यही आयु का आयुत्व है ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आयु को गौ का वत्स कहा गया है ।
वैसे वत्स या वत्सर का अर्थ है एक वर्ष की उम्र |
ज्योति व गौ के मिथुन से आयु वत्स का जन्म होता है ।
ऋग्वेद की ऋचाओं में कहा गया है कि गौ अपने वत्स के पीछे भागती है ।
यव के सम्बन्ध में एक संभावना यह हो सकती है कि यव की उत्पत्ति बाहर के सूर्य की किरणों से होती हो और गौ की अपने अन्दर के सूर्य की किरणों से ।
यह महत्त्वपूर्ण है कि वैदिक साहित्य अदिति रूपी गौ के किसी भी प्रकार से वध का निषेध करता है - मा गामनागां अदितिं वधिष्ट (तैत्तिरीय संहिता ४.२.१०.२ आदि ) ।
डा. फतहसिंह के शब्दों में अदिति एक इकाई है । वह देवों की माता है ।
दूसरी ओर दिति है जो खण्डित व्यक्तित्व है । वह असुरों की माता है ।
जैमिनीय ब्राह्मण २.३४ में यव का सम्बन्ध रैवत साम से और गौ का रथन्तर साम से जोडा गया है । इनके बीच में अन्य पशुओं के साम हैं ।
रैवत साम के संदर्भ में रेवती नक्षत्र के लिए कहा गया है कि गाव: परस्तात्, वत्सा अवस्तात् । अर्थात् गौ अपने वत्स का पालन करती है ।
वैसे वत्स या वत्सर का अर्थ है एक वर्ष की उम्र | लेकिन वैदिक साहित्य में वत्स का क्या अर्थ है, यह एक अलग विषय है। यज्ञ में दुग्ध पान करते हुए वत्स को हटा कर यज्ञ कार्य हेतु दुग्ध का ग्रहण किया जाता है । आभासी रूप में यह एक क्रूर कार्य कहा जाएगा । लेकिन वैदिक साहित्य में वत्स का प्रतीकार्थ क्या है, इसकी व्याख्या उपनिषद में की गई है ।
ज्यातिष्टोम में तम का त्याग या होम करना होता है, भूः स्वाहा
गोष्टोम में जडता का त्याग करना पडता है, भुवः स्वाहा
आयुष्टोम में भेदभाव का त्याग करना पडता है, स्वः स्वाहा
यह उल्लेखनीय है कि वैदिक यज्ञों की दो श्रेणियां हैं - हविर्यज्ञ और सोमयज्ञ । हविर्यज्ञ अग्निहोत्र से आरम्भ होते हैं और विवाह पर समाप्त होते हैं ।
इन्हें हविर्यज्ञ इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें हवि की आहुति दी जाती है ? हवि में यव भी सम्मिलित है । लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है कि अग्निहोत्र आदि यज्ञों में भी अग्निहोत्री/ गौ का बहुत महत्त्व है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रश्नोत्तर उपलब्ध हैं कि कौन किस प्रकार की अग्निहोत्री की उपासना करता है ।
दूसरी ओर सोम संस्थागत यज्ञ हैं जिनमें हवि की आहुति नहीं दी जाती, अपितु घृत/ आज्य की आहुतियां दी जाती हैं । इस वर्ग में ज्योतिष्टोम/ अग्निष्टोम संज्ञक यज्ञ प्रथम है ।
सोमसंस्थागत यज्ञों में यजमान यव का भक्षण नहीं करता, वह गोपयः से ही तृप्ति प्राप्त करता है ।
और सोमसंस्थागत यज्ञों में गोवत्स द्वारा गो के पयःपान का निषेध कर दिया जाता है, केवल यज्ञ कार्य के लिए ही उसका उपयोग किया जाता है ।
गौ का कुण्डलिनी शक्ति से सम्बन्ध
वैदिक साहित्य में कुछ स्थानों पर उल्लेख आते हैं कि यज्ञ कार्य के लिए दुग्ध का दोहन करते समय यदि गौ बैठी हुई हो तो उसे दण्ड द्वारा उठाना चाहिए ( उदाहरण के लिए, जैमिनीय ब्राह्मण १.५९) ।
दण्ड द्वारा उत्थापन की बात हठयोग सम्बन्धी ग्रन्थों में कुण्डलिनी शक्ति के लिए भी की गई है ।
अतः यह संकेत करता है कि गौ कुण्डलिनी शक्ति की प्रतीक भी हो सकती है ।
ऋग्वेद का अन्तिम सूक्त आयं गौ: पृश्निरक्रमीदसन् मातरं पुर: । पितरं च प्रयन्त्स्व: इति सार्पराज्ञी सूक्त कहलाता है
और कुण्डलिनी को भी सार्पराज्ञी कहा जाता है ।
अतः जब ब्राह्मण ग्रन्थ गौ को वाक् कहते हैं तो उससे तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति से भी लिया जा सकता है ।
यह सर्वविदित है कि भोजन करने पर कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत नहीं रह पाती । वह बैठ ही जाती है । यह एक प्रकार से गौ का हनन ही है ।
अतः जब वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में गौ के वध की बात की जाती है तो इसे इस दृष्टिकोण से भी समझने की आवश्यकता है ।
अपेक्षा यह की जाती है कि कुण्डलिनी शक्ति सदैव आकाश में ऊंचे और ऊंचे विचरण करती रहे ।
लेकिन प्रायः सभी की कुण्डलिनी शक्ति सोई पडी रहती है ।
सिन्धु घाटी की सभ्यता में प्राप्त की  सार्पराज्ञी या पट्टमहिषी मुद्रा को गवामयन सत्र याग के आधार पर समझा जा सकता है।
गवामयन याग एक वर्ष का होता है जिसमें पहले छह महीने विश्वजित् और बाद के छह महीने सर्वजित् कहलाते हैं।
बीच का दिन दिवाकीर्त्यम् अह कहलाता है।
बीच के दिन दिवाकीर्त्यम् अह के विषय में कहा गया है कि यह विषुवत (वि - सुव, विशिष्ट प्रकार से प्रेरणा प्राप्त करना) अह है।
भौगौलिक आधार पर, विषुवत अह वह होता है जिस दिन सूर्य की किरणें पृथिवी पर अधिकतम सीधी आती हैं।
विषुवत रेखा भी पृथिवी का वह स्थान है जहां सूर्य की किरणें सीधी पडती हैं।
आध्यात्मिक रूप में यह कहा जा सकता है कि विषुवत अह वह स्थिति है जहां आत्मा और परमात्मा निकटतम होते हैं।
पहले छह महीने विश्वजित् कहलाते हैं।
इन दिनों में अपनी चेतना को एकत्र करना, समेटना होता है, अपनी अव्यवस्था को, एण्ट्रॉपी को न्यूनतम बनाना होता है, चेतना को अस्थियों तक सीमित करना पडता है, समाधि की स्थिति प्राप्त करनी होती है।
बाद के छह महीनों में अस्थियों में समाई इस चेतना का विस्तार पूरी देह में करना होता है।